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१५२.
संयम तरंग
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कर, खेचरी मुद्रा धार || सूखम पवने गगन मंगल गत, दृष्टि पतंग पर सार ॥ सं० ॥ २ ॥ गुण. णी गत कोक टालो, श्रप्रमत्त जाव वधार ॥ सहस पर थकत थिति खय, जग जस सूर विचार ॥ सं० ॥ ३ ॥ सकल पररिधि काप संतो, वीर प्रमोद जराय || ज्ञानानंद नवनिधि संयम, नाचै निरख हरखाय ॥ सं० ॥ ४ ॥ इति ॥ ॥ पद एकत्रीशमुं ॥
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॥ राग जींजोटी जंगला ॥ अनुजव रस गत माती, रंग राती ॥ ० ॥ टेक ॥ गगन मंगलगत इग श्रमि सरवर, निरखत प्रमद जराती ॥ ता तट इग मुगताफल तरुवर, निकलंक फूल फल जाती ॥ रं० ॥ ॥ १ ॥ मुगतका मिजल खावत पीवत, रंग खुमार घुमाती ॥ रं० ॥ निशि शशि रवि करत वि कारा, डुर्धर तिमिर हराती ॥ रं० ॥ २ ॥ अनहद धुनि संग शंकर नाचे, निस्पृह जाव रमाती ॥ रं० ॥ निधि चारित्र ज्ञानानंद रंगें, गावत नाटक राती ॥ रं० ॥ ३ ॥ इति ॥
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