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संयम तरंग १५३ अनुजव अंधक नर ढूंढत, अनुजव दीप जगारो॥ दी० ॥६॥ तातें श्रवधू मत ठहराणी, ज्ञेय ज्ञान सुविचारो ॥ दी०॥७॥ तेहथी निधि चारित रिधि पामी, ज्ञानानंद निहारो॥ दी० ॥ ७ ॥ इति ॥
॥पद शोलमुं॥ ॥ राग सोयनी ॥ प्यारी नेह लगारो ॥ प्या॥ टेक ॥ बिनप्यारी घर घरमें जटकत, कायर नाव दे. खारो ॥ प्या ॥१॥ कुमतियोगें चार नगरमें, विविध रूप विसतारो ॥ प्या० ॥२॥ पांच जातका वेस पहराया, निजप्यारी बिन हारो ॥ प्या॥३॥ तेवीस विषयके फंदमें नाखी, पापथान विलगारो ॥ प्या॥४॥ हास्यादिक वज्र कोटें घेख्यो, निजसुध बुध बिसरारो ॥प्या ॥५॥ तिनतें प्यारी युत निधिचारित, ज्ञानानंद लहे सारो ॥ प्या० ॥६॥
॥पद सत्तरमुं॥ ॥ राग वरुवा ॥ एक समीरका सहर बना हे,श्र. दनूत पंच बाजार तना हे ॥ ए॥ टेक ॥ दस मारग दसही दरवाजै, चउ बासा चउ नगर बिराजै॥ एते ॥ १॥ तेवीस वसंत जिहां नितप्रति दीपे, लेत
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