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ज्ञानविलास . १३१ टिला तिन पासे, रमण करे चित्त लाइ॥ मदिरा पाने ते मतवालो, विकथा चज बतलाइ ॥ तु०॥४॥ ग्राहक व्यापक जोगें लंपट, सुख विनाव सुहा॥ संसृति संग सहु अपनो जाने, विगमे काल सदा ॥ तु० ॥५॥श्न अवसर निधि चारित्र निरखे, झानानंद सदा ॥ नोले पंखीका देख तमासा, गुण संवेग रमाइ॥ तु० ॥६॥ इति ॥
॥पद बहोत्तेरमुं॥ ॥राग जंगलो॥धीरज धारोरे बाइ, सांजल वा. मिनी वाणी सखी कहे ॥धी० ॥ टेक॥ समता स.. खीं पियु निरखन चाली, श्रागम मंत्री नाश् ॥ . र्धर चार सुजट संग लेश, गम गम निरखा ॥ धी० ॥१॥ निरखत निरखत मोहके वाडे, श्रा गुपत रहा॥श्रा सखि ए चार सुनट युत, तेहने पासें ग॥धी०॥॥ श्रागम मंत्री गुपत रहीने, अवसर नाव जनाश् ॥ अपनो अपनो दावं विचारे,ततपर कारज जाय ॥धी॥३॥ मोहनो परिकर श्रागम निरखी, सघला चित्त चमका ॥ धर्म राजको परिकर निरखी, नाग सहु उकता ॥
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