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ज्ञान विलास
१७ ब्रूडे मन लाय ॥ ज० ॥४॥ इन कारण जग मत पख बांडी, निधि चारित्र लहाय ॥ ज्ञानानंद निज जावें निरखत, जग पाखंड लहाय ॥ ज० ॥ ५॥ इति ॥
॥ पद पांशठमुं॥ - ॥राग बिहाग ॥ जगगुरु मूरख जगत जनाय ॥ ज० ॥ टेक ॥ मूरख मूरख बहुलो जग जन, गूढ पंडित केश जाय ॥ पंडित मूरख बहु जन दीसे, जग मतलब लहे जाय ॥ ज०॥१॥ पंमित पंमित नहिं को जगमें, कबहीं कोई जनाय ॥ दिव्य विचारी तेहनें जाखे, संसृति अलप गिनाय ॥ ज० ॥२॥ तेहचं दर्शन जगमें उर्लन, ते तारक जग मांह ॥ तिनतें नवनिधि चारित जावे, ज्ञानानंद अथाह ॥ ज०॥३॥ इति ॥
॥पद गशपमुं॥ ॥राग रामग्री ॥ निरपखता मोकुं नाश, पिया तम ॥ नि ॥ टेक ॥ पक्षपातमें घर घर जटकी, नहिं निरपख दिखला ॥ पि० ॥ संवेगी संवेगन कीनी, योगी योगन ना॥ पि० ॥१॥ सन्यासी सन्यासन कीनी, बामण बामणी ला ॥ पि० ॥ रा
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