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________________ ३२७ नवमः सर्गः ते समयमां श्री शत्रुजयपर मोदे गया बे, माटे ते तीर्थने जेम बने तेम अधिक रीतें सेवईं; केम के, ते मोदना श्रव्याबाध कारणरूप . एवी रीते श्रीवीर प्रजु लोकोना समूहरूपी देत्रोमां आनंद करनारा, तथा श्री शत्रुजय तीर्थना महिमारूपी जलसायमान पुण्यना समूह सरखा वाणीना समूहने वरसीने, तेना उगममाटे, पुष्करावर्तमेघ, कमल, तथा शंख सरखी उत्तम कीर्तिने थापनार्थी अध्ययन मुखथी कहेता हवा. एवी रीते श्राचार्य महाराज श्रीधनेश्वरसूरिजीए बनावेला महा तीर्थ श्री शत्रुजयना माहात्म्यमां श्रीराम थादिक महापुरुषोना चरित्रना वर्णननो नवमो सर्ग समाप्त थयो. एवी रीते था शत्रुजय माहात्म्यना प्रथम खंडन संस्कृतपरथी शुद्ध गुजराती भाषांतर जामनगर निवासी पंडित श्रावक हीरालाल वि. हं. सराजे करेलु डे; तेमां प्रमादथी के मतिदोषथी जे कंई उत्सूत्र के विपरीत लखायुंहोय,ते “मिलामि डुक्कम तथा तेसुज्ञजनोए सुधारीनेवांच.केम के, गवतः स्खलनं क्वापि, नवत्येव प्रमादतः इसंति दुर्जनास्तत्र, समादधति सजनाः॥१॥ अर्थः- मार्गे जतां थकां प्राणीने प्रमादयी स्खलना तो क्यांक थयाज करे , पण ते वखते उर्जनोज त्यां हांसी करे , पण सङनो तो तेने सारी रीते उगडीने बेठो करे बे. हवे नाषांतरकर्ता समाप्तिमंगल माटे पोताना गुरु श्री चारित्रविजपजी महाराजनी स्तुति करे . लब्ध्वा यदीयचरणांबुजतारसारं, खादछटाधरितदिव्यसुधासमूहम् ॥ संसारकाननतटेह्यटतालिनेव, पीतो मया प्रवरबोध रसप्रवाहः॥१॥ वंदे ममगुरुतंच,चारित्रविजयानिधम्, परोपकारिणांधुर्य,दत्तानंदकदंबकम्य हीनपुण्या न पश्यंति, रागांधास्तत्वसंस्थितिम् ॥ लानेऽलानफलं चैव, लनंते ते नराधमाः॥१॥ समाप्तोऽयं श्री शत्रुजयमाहात्म्यस्य प्रथमः खंडः गुरुश्रीमच्चारित्रविजयसुप्रसादात् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005362
Book TitleShatrunjaya Mahatmya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1899
Total Pages340
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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