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शत्रुजय मादात्म्य. ग्यो; वली त्यां श्रादीश्वर प्रजुनी प्रतिमाने जोश्ने तृप्ती नहि पामतो थको, रोमांच सहित ते पोतानां चकुने निमेष रहित करवा लग्यो. ते श्रा मुनि शिखरनां अग्र नागपर रहीने पुष्कर तप तपे बे, तथा हमणाज ते घाती कर्मनो क्षय करीने केवल ज्ञान पामशे. हे देवो! हुं माहाविदेह क्षेत्रमा गयो हतो, त्यांथी आ सघलो व्रतांत में श्री मंदिरखामीनां मुखथी सांजस्यो , माटे महापापी माणस पण श्रीशजयनी सेवाश्री श्रा कंडु राजानी पेठे शुद्ध धर्मने जजनारो थाय .
हवे ते वखते बीजा देवता पण कांतिथी आकाशने दीपावता थका त्यां जिनेश्वरोने नमस्कार करवा माटे श्राव्या. वली त्यां सघला इंसोए, पुष्कोने नाश करनारी,तथा जूतादिकनां दोषने दूर करनारी एवी रा.. यणने प्रदक्षिणा देश्ने, श्री वीरप्रजुने नमस्कार को. वली तेजए त्यां नाना प्रकारनी लब्धिवाला, अष्टांग योगमां निपुण, प्रजावनाना उदय. वाला, ध्यानमा मग्न श्रात्मावाला, मौनधारी, धर्मर्नु माहात्म्य कहेनारा, . जपमां तत्पर, जपमालानां मणकाउ फेरववामां तत्पर, मांहोंमांहें धमकथा करनारा, कायोत्सर्ग करनारा, पद्मासन वारीने बेठेला, अनुकंपा वाला, हाथ जोडीने बेठेला, आदीश्वर प्रजुनां मुखरूपी कमलने जोवामां तत्पर, सूर्य सन्मुख राखेल डे दृष्टि जेए एवा, हाथमां पुस्तकवाला, तप तपता, तीर्थसेवा करता, सघला सिझांतनां तत्वनी विद्यामा निपुण, श्वेत वस्त्रने धारण करनारा, परिषहोने सहन करनारा, अंतरंग शत्रुने जीतवामां शूरा, प्राणीउपर उपकार करनारा, चौद उपकरणोनुं पडिलेहण करता, मूर्तिवंत जाणे शांतरसोज होय नहीं एवा, तथा देहधारी जाणे धर्मोज होय नहीं एवा, वीर नगवाननी आसपास रहेला केटलाक मुनिउँने पण वांद्या.
हवे अहीं मांहोंमांहें स्पर्धा करता थका देवो उत्तम रत्नोथी नीचे प्रमाणे समवसरणनी रचना करवा लाग्या. त्यां वायुकुमारो सुगंधि वायु वीजवा लाग्या; तथा मेघकुमारो अत्यंत सुगंधि जलनी वृष्टि करवा लाग्या. ते वखते पाणीथी सींचायेली शत्रुजय पर्वत उपरनी नूमि, मंगलरूप फलने उत्पन्न करनारा पुण्यरूपी वृदने उगाडवामाटेज जाणे तैयार करेली होय नहीं, तेम शोजवा लागी; वली त्यां देवोये एक
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