SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय-केवलज्ञान-दर्शनोपयोग के भेदाभेद की चर्चा ५९ यद्यपि विशेषणवती की स्वोपज्ञ व्याख्या नहीं है फिर भी उस में पाई जानेवाली प्रस्तुत तीन वाद संबंधी कुछ गाथाओं की व्याख्या सब से पहले हमें विक्रमीय आठवीं सदी के आचार्य जिनदास गणि की 'नन्दीचूर्णि' में मिलती है। उस में भी हम देखते हैं कि जिनदास गणि 'केचित्' और 'अन्ये' शब्द से किसी आचार्य विशेष का नाम सूचित नहीं करते । वे सिर्फ इतना ही कहते हैं कि केवल ज्ञान और केवल दर्शन उपयोग के बारे में आचार्यों की विप्रतिपत्तियाँ हैं। जिनदास गणि के थोड़े ही समय बाद आचार्य हरिभद्र ने उसी नन्दी चूर्णि के आधार से 'नन्दीवृत्ति' लिखी है। उन्हों ने भी अपनी इस नन्दी वृत्ति में विशेषणवतीगत प्रस्तुत चर्चावाली कुछ गाथाओं को ले कर उन की व्याख्या की है। जिनदास गणिने जब 'केचित्' 'अन्य' शब्द से किसी विशेष आचार्य का नाम सूचित नहीं किया तब हरिभद्रसूरि ने विशेषणवती की उन्हीं गाथाओं में पाए जानेवाले 'केचित्' 'अन्ये' शब्द से विशेष विशेष आचार्यों का नाम भी सूचित किया है । उन्हों ने प्रथम 'केचित्' शब्द से थुगपद्वाद के पुरस्कर्ता रूप से आचार्य सिद्धसेन का नाम सूचित किया है । इस के बाद 'अन्य' शब्द से जिनभद्र क्षमाश्रमणको क्रमवाद के पुरस्कर्ता रूप से सूचित किया है और दूसरे 'अन्य' शब्द से वृद्धाचार्य को अभेद वाद का पुरस्कर्ता बतछाया है। हरिभद्रसूरि के बाद बारहवीं सदी के मलयगिरिसूरि ने भी नन्दीसूत्र के ऊपर टीका लिखी है। उस (पृ०१३४ ) में उन्हों ने वादों के पुरस्कर्ता के नाम के बारे में हरिभद्रसूरि के कथन का.ही अनुसरण किया है। यहाँ स्मरण रखने की बात यह है कि विशेषावश्यकभाष्य की उपलब्ध दोनों टीकाओं में-जिनमें से पहली आठवीं नवीं सदी के कोट्याचार्य की है और दूसरी बारहवीं सदी के मलधारी हेमचन्द्र की है- तीनों वादों के पुरस्कर्ता रूप से किसी आचार्य विशेष का नाम निर्दिष्ट नहीं है। कम से कम कोट्याचार्य के सामने तो विशेषावश्यक भाष्य की जिनभद्रीय स्वोपज्ञ व्याख्या मौजूद थी ही। इस से यह कहा जा सकता है कि उस में भी तीनों वादों के पुरस्कर्ता रूप से किसी विशेष आचार्य का नाम रहा न होगा; अन्यथा कोट्याचार्य उस जिनभद्रीय खोपक्ष व्याख्या में से विशेष नाम अपनी विशेषावश्यक भाष्यवृत्ति में जरूर लेते । इस तरह हम देखते हैं कि जिनभद्र की एकमात्र विशेषणवती गत गाथाओं की व्याख्या करते समय सबसे पहले आचार्य हरिभद्र ही तीनों वादों के पुरस्कर्ताओं का विशेष नामोल्लेख करते हैं। पूसरी तरफ से हमारे सामने प्रस्तुत तीनों वादों की चर्चावाला दूसरा प्रन्थ 'सन्मतितर्क है जो निर्विवाद सिद्धसेन दिवाकर की कृति है। उस में दिवाकरश्री ने क्रमवाद का : १॥"केचन' सिद्धसेनाचार्यादयः 'भणतिकि। 'युगपद' एकस्मिन् काले जानाति पश्यति च।का। केवली, न खन्यः । 'नियमात्' नियमेन ॥ 'अन्ये' जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः। 'एकान्तरितम्' जानाति पश्यति च इत्येवं 'इच्छन्ति' । 'श्रुतोपदेशेन' यथाश्रुतागमानुसारेण इत्यर्थः । 'अन्ये' तु वृद्धाचार्या: 'म व विष्वक्' पृथक् त 'दर्शनमिच्छन्ति' । 'जिनवरेन्द्रस्य' केवलिन इत्यर्थः। कि तर्हि ।। 'यदेव केवलज्ञानं तदेव' "से' तस्य केवलिनो 'दर्शन' अवते ॥"-नन्दीवृत्ति हारिभद्री, पृ० ५२। २मलधारीने अमेद पक्ष का समर्थक "एवं कल्पितमेदमप्रतिहतम्' इत्यादि पद्य स्तुतिकारके मामसे उखत किया है और कहा है कि बेसा मानना युक्तियुक्त नहीं है । इससे इतना तो स्पष्ट है कि मलधारीने स्तुतिकार को अभेद वादी माना है। देखो, विशेषा०.गा.३०९१ की टीका । उसी पद्यको कोव्याचार्यने 'उक्तंच' कह करके उब्त किया है-पृ.८७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy