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________________ ज्ञान बिन्दुपरिचय- केवलज्ञान- दर्शनोपयोग के भेदाभेद की चर्चा I यह आक्षेप किया कि तुम्हारे सर्वज्ञ अगर क्रम से सब पदार्थों को जानते हैं तो वे सर्वज्ञ ही कैसे ? और अगर एक साथ सभी पदार्थों को जानते हैं तो एक साथ सब जान लेने के बाद आगे वे क्या जानेंगे ? कुछ भी तो फिर अज्ञात नहीं है । ऐसी दशा मैं भी वे असर्वज्ञ ही सिद्ध हुए । इस आक्षेप का जवाब दूसरे सर्वज्ञ वादियों की तरह जैनों को भी देना प्राप्त हुआ । इसी तरह बौद्ध आदि सर्वज्ञ वादी भी जैनों के प्रति यह आक्षेप करते रहे होंगे कि तुम्हारे सर्वज्ञ अर्हत् तो क्रम से जानते देखते हैं; अत एव वे पूर्ण सर्वज्ञ कैसे ? । इस आक्षेप का जवाब तो एक मात्र जैनों को ही देना प्राप्त था । इस तरह उपर्युक्त तथा अन्य ऐसे आक्षेपों का जवाब देने की विचारणा में से सर्व प्रथम ative पक्ष, क्रम पक्ष के विरुद्ध जैन परंपरा में प्रविष्ट हुआ। दूसरा यह भी संभव है कि जैन परंपरा के तर्कशील विचारकों को अपने आप ही क्रम पक्ष में त्रुटि दिखाई दी और उस त्रुटि की पूर्ति के विचार में से उन्हें यौगपद्य पक्ष सर्व प्रथम सूझ पडा । जो जैन विद्वान यौगपद्य पक्ष को मान कर उस का समर्थन करते थे उन के सामने क्रम पक्ष मानने वालों का बडा आगमिक दल रहा जो आगम के अनेक वाक्यों को ले कर यह बतलाते थे कि यौगपद्य पक्ष का कभी जैन आगम के द्वारा समर्थन किया नहीं जा सकता । यद्यपि शुरू में यौगपद्य पक्ष तर्कबल के आधार पर ही प्रतिष्ठित हुआ जान पडता है, पर संप्रदाय की स्थिति ऐसी रही, कि वे जब तक अपने यौगपद्य पक्ष का आगमिक वाक्यों के द्वारा समर्थन न करें और आगमिक वाक्यों से ही क्रम पक्ष मानने बालों को जवाब न दें, तब तक उन के यौगपद्य पक्ष का संप्रदाय में आदर होना संभव न था । ऐसी स्थिति देख कर यौगपद्य पक्ष के समर्थक तार्किक विद्वान भी आगमिक वाक्यों का आधार अपने पक्ष के लिए लेने लगे तथा अपनी दलीलों को आगमिक वाक्यों में से फलित करने लगे । इस तरह श्वेताम्बर परंपरा में क्रम पक्ष तथा यौगपद्य पक्ष का आगमाश्रित खण्डन-मण्डन चलता ही था कि बीच में किसी को अभेद पक्ष की सूझी। ऐसी सूझ वाला तार्किक यौगपद्य पक्ष वालों को यह कहने लगा कि अगर क्रम पक्ष में त्रुटि है तो तुम यौगपद्य पक्ष वाले भी उस त्रुटि से बच नहीं सकते। ऐसा कह कर उस ने यौगपद्य पक्ष में भी असर्वशत्व आदि दोष दिखाए । और अपने अभेद पक्ष का समर्थन शुरू किया। इस में तो संदेह ही नहीं कि एक बार क्रम पक्ष छोड कर जो यौगपद्य पक्ष मानता है वह अगर सीधे तर्कबल का आश्रय ले तो उसे अभेद पक्ष पर अनिवार्य रूप से आना ही पडता है। अभेद पक्ष की सूझ वाले ने सीधे तर्कबल से अभेद पक्ष को उपस्थित कर के क्रम पक्ष तथा यौगपद्य पक्ष का निरास तो किया पर शुरू में सांप्रदायिक लोग उस की बात आगमिक वाक्यों के सुलझाव के सिवाय स्वीकार कैसे करते ? | इस कठिनाई को हटाने के लिए अभेद पक्ष वालों ने आगमिक परिभाषाओं का नया अर्थ भी करना शुरू कर दिया और उन्हों ने अपने अभेद पक्ष को तर्कवल से उत्पन्न कर के भी अंत में आगमिक परिभाषाओं के ढांचे में बिठा दिया। क्रम, यौगपद्य और अभेद पक्ष के उपर्युक्त विकास की प्रक्रिया कम से कम १५० वर्ष तक श्वेताम्बर १ देखो, तरवसंग्रह का० ३२४८ से । 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only ५७ www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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