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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय-केवल ज्ञान के अस्तित्व की साधक युक्ति ४३ ज्ञान संक्षेप में दो प्रकार का माना गया है । एक तो वह जो इन्द्रियागम्य ऐसे सूक्ष्म मूर्त पदार्थों का साक्षात्कार कर सके। दूसरा वह जो मूर्त-अमूर्त सभी त्रैकालिक षस्तुओं का एक साथ साक्षात्कार करे । इन में से पहले प्रकार का साक्षात्कार तो सभी आध्यात्मिक तत्त्वचिन्तकों को मान्य है, फिर चाहे नाम आदि के संबन्ध में भेद भले ही हो। पूर्व मीमांसक जो आध्यात्मिकशक्तिजन्य पूर्ण साक्षात्कार या सर्वज्ञत्व' का विरोधी है उसे भी पहले प्रकार के आध्यात्मिकशक्तिजन्य अपूर्ण साक्षात्कार को मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती । मतभेद है तो सिर्फ आध्यात्मिकशक्तिजन्य पूर्ण साक्षात्कार के हो सकने न हो सकने के विषय में । मीमांसक के सिवाय दूमरा कोई आध्यात्मिक वादी नहीं है जो ऐसे सार्वज्य - पूर्ण साक्षात्कार को न मानता हो। सभी सार्वज्यवादी परंपराओं के शास्त्रोंमें पूर्ण साक्षात्कार के अस्तित्व का वर्णन तो परापूर्व से चला ही आता है; पर प्रतिवादी के सामने उस की समर्थक युक्तियाँ हमेशा एक-सी नहीं रही हैं। इन में समय समय पर विकास होता रहा है। उपाध्यायजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्वज्ञत्व की समर्थक जिस युक्ति को उपस्थित किया है वह युक्ति उद्देशतः प्रतिवादी मीमांसकों के संमुख ही रखी गई है। मीमांसक का कहना है कि ऐसा कोई शास्त्रनिरपेक्ष मात्र आध्यात्मिकशक्तिजन्य पूर्ण ज्ञान हो नहीं सकता जो धर्माधर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थों का मी साक्षात्कार कर सके । उस के सामने सार्वज्यवादियों की एक युक्ति यह रही है कि जो वस्तु' सातिशय - तरतमभावापन्न होती है वह बढ़ते बढ़ते कहीं न कहीं पूर्ण पशाको प्राप्त कर लेती है। जैसे कि परिमाण । परिमाण छोटा भी है और तरतमभावसे बड़ा भी । अत एव वह आकाश आदि में पूर्ण काष्ठाको प्राप्त देखा जाता है। यही हाल शान का भी है। ज्ञान कहीं अल्प तो कहीं अधिक - इस तरह तरतमवाला देखा जाता है। अत एव वह कहीं न कहीं संपूर्ण भी होना चाहिए । जहाँ वह पूर्णकलाप्राप्त होगा वही सर्वज्ञ । इस युक्ति के द्वारा उपाध्यायजी ने भी ज्ञानबिन्दु में केवल ज्ञान के अस्तित्व का समर्थन किया है। ___ यहाँ ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रश्न है, कि प्रस्तुत युक्ति का मूल कहाँ तक पाया जाता है, और वह जैन परंपरा में कब से आई देखी जाती है। अभी तक के हमारे वाचन-चिन्तनसे हमें यही जान पड़ता है कि इस युक्ति का पुराणतम उल्लेख योगसूत्र के अलावा अन्यत्र नहीं है। हम पातंजल योगसूत्र के प्रथमपाद में 'तत्र निरतिशयं सर्वज्ञवीजम् [१.२५.] ऐसा सूत्र पाते हैं, जिस में साफ तौर से यह बतलाया गया है कि ज्ञान का तारतम्य ही सर्वज्ञ के अस्तित्व का बीज है जो ईश्वर में पूर्णरूपेण विकसित है । इस सूत्र के ऊपर के भाष्य में व्यासने तो मानों सूत्र के विधान का आशय हस्तामलकवत् प्रकट किया है। न्याय-वैशेषिक परंपरा जो सार्वज्ञवादी है उस के सूत्र भाष्य आदि प्राचीन ग्रन्थों में इस सर्वज्ञास्तित्व की साधक युक्ति का उल्लेख नहीं है। हाँ, हम प्रशस्तपाद की टीका व्योमवती [पू० ५६० ] में उस का उल्लेख पाते हैं । पर ऐसा कहना नियुक्तिक नहीं होगा कि १ सर्वशावाद के तुलनात्मक इतिहास के लिए देखो, प्रमाणमीमांसा भाषाटिप्पण, पृ...। २देखो, निष्पण पू.१.८.पं.१७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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