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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय - अवधि और मनःपर्याय की चर्चा प्रस्तुत चर्चा के लिए उपयुक्त नहीं । केवल 'तद्वति तत्प्रकारकत्वरूप' उस का प्रकार ही प्रस्तुत स्वतः-परतस्त्व की सिद्धि की चर्चा के लिए उपयुक्त है । अनुपयोगी कह कर छोड दिए गए जिन और जितने प्रामाण्य के प्रकारों का, उपाध्यायजी ने विभिन्न दृष्टि से जैन शास्त्रानुसार ज्ञानबिन्दु में निदर्शन किया है, उन और उतने प्रकारों का वैसा निदर्शन किसी एक जैन ग्रन्थ में देखने में नहीं आता। मीमांसक और नैयायिक की ज्ञान बिन्दुगत स्वत:-परतः प्रामाण्य वाली चर्चा नव्यन्याय के परिष्कारों से जटिल बन गई है। उपाध्यायजी ने उदयन, गंगेश, रघुनाथ, पक्षधर आदि नव्य नैयायिकों के तथा मीमांसकों के ग्रन्थों का जो आकंठ पान किया था उसी का उद्गार प्रस्तुत चर्चा में पथ पथ पर हम पाते हैं। प्रामाण्य की सिद्धि स्वतः मानना या परतः मानना या उभयरूप मानना यह प्रश्न जैन परंपरा के सामने उपस्थित हुआ। तब विद्यानन्दि' आदि ने बौद्ध मत को अपना कर अनेकान्त दृष्टि से यह कह दिया कि अभ्यास दशा में प्रामाण्य की सिद्धि स्वतः होती है और अनभ्यास दशा में परतः । उस के बाद तो फिर इस मुद्दे पर अनेक जैन तार्किकों ने संक्षेप और विस्तार से अनेकमुखी चर्चा की है। पर उपाध्यायजी की चर्चा उन पूर्वाचार्यों से निराली है। इस का मुख्य कारण है उपाध्यायजी का नव्य दर्शनशास्त्रों का सर्वाङ्गीण परिशीलन । चर्चा का उपसंहार करते हुए [६४२,४३ ] उपाध्यायजी ने मीमांसक के पक्ष में और नैयायिक के पक्ष में आने वाले दोषों का अनेकान्त दृष्टि से परिहार कर के, दोनों पक्षों के समन्वय द्वारा जैन मन्तव्य स्थापित किया है। ३. अवधि और मनःपर्याय की चर्चा मति और श्रुत ज्ञान की विचारणा पूर्ण कर के प्रन्थकार ने क्रमशः अवधि [९५१, ५२] और मनःपर्याय [६५३,५४ ] की विचारणा की है। आर्य तत्त्वचिन्तक दो प्रकार के हुए हैं, जो भौतिक - लौकिक भूमिका वाले थे उन्हों ने भौतिक साधन अर्थात् इन्द्रिय-मन के द्वारा ही उत्पन्न होने वाले अनुभव मात्र पर विचार किया है । वे आध्यात्मिक अनुभव से परिचित न थे। पर दूसरे ऐसे भी तत्त्वचिन्तक हुए हैं जो आध्यात्मिक भूमिका वाले थे। जिन की भूमिका आध्यात्मिक-लोकोत्तर थी उन का अनुभव भी आध्यात्मिक रहा । आध्यात्मिक अनुभव मुख्यतया आत्मशक्ति की जागृति पर निर्भर है। भारतीय दर्शनों की सभी प्रधान शाखाओं में ऐसे आध्यात्मिक अनुभव का वर्णन एकसा है । आध्यात्मिक अनुभव की पहुंच भौतिक जगत् के उस पार तक होती है । वैदिक, बौद्ध और जैन परंपरा के प्राचीन समझे जाने वाले ग्रन्थों में, वैसे विविध आध्यात्मिक अनुभवों का, कहीं कहीं मिलते जुलते शब्दों में और कहीं दूसरे शब्दों में वर्णन मिलता है। जैन वाङ्मय में आध्यात्मिक अनुभव-साक्षात्कार के तीन प्रकार वर्णित हैं-अवधि, मनापर्याय और केवल । अवधि प्रत्यक्ष वह है जो इन्द्रियों के द्वारा अगम्य ऐसे सूक्ष्म, १ देखो, प्रमाणपरीक्षा, पृ. ६३; तत्वार्थश्लो॰, पृ० १७५, परीक्षामुख १.१३ । २ देखो, तत्त्वसंग्रह, पृ. ८११। ३ देखो, प्रमाणमीमांसा भाषाटिप्पण, पृ. १६ पं० १८ से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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