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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय-अहिंसा का स्वरूप और विकास ३१ सक इष्ट है जब तक वह आध्यात्मिकताका विरोधी न हो । जहाँ उस का आध्यात्मिकता से विरोध दिखाई दिया वहाँ पहली दृष्टि लोकसंग्रह की ओर उदासीन रहेगी या उस का विरोध करेगी। जब कि दूसरी दृष्टि में लोकसंग्रह इतने विशाल पैमाने पर किया गया है कि जिस से उस में आध्यात्मिकता और भौतिकता परस्पर टकराने नहीं पाती। श्रमण परंपरा की अहिंसा संबंधी विचारधारा का एक प्रवाह अपने विशिष्ट रूप से बहता था जो कालक्रम से आगे जा कर दीर्घ तपस्वी भगवान महावीर के जीवन में उदात्त रूप में व्यक्त हुआ । हम उस प्रकटीकरण को 'आचाराङ्ग', 'सूत्रकृताङ्ग आदि प्राचीन जैन आगमों में स्पष्ट देखते हैं । अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठा तो आत्मौपम्य की दृष्टि में से ही हुई थी। पर उक्त आगमों में उस का निरूपण और विश्लेषण इस प्रकार हुआ है १. दुःख और भय का कारण होने से हिंसामात्र वर्ण्य है, यह अहिंसा सिद्धान्त की उपपत्ति । २. हिंसा का अर्थ यद्यपि प्राणनाश करना या दुःख देना है तथापि हिंसाजन्य दोष का आधार तो मात्र प्रमाद अर्थात् रागद्वेषादि ही है। अगर प्रमाद या आसक्ति न हो तो केवल प्राणनाश हिंसा कोटि में आ नहीं सकता, यह अहिंसा का विश्लेषण । ३. वध्यजीवों का कद, उन की संख्या तथा उन की इन्द्रिय आदि संपत्ति के तारतम्य के ऊपर हिंसा के दोष का तारतम्य अवलंबित नहीं है; किन्तु हिंसक के परिणाम या वृत्ति की तीव्रता-मंदता, सज्ञानता-अज्ञानता या बलप्रयोग की न्यूनाधिकता के ऊपर अवलंबित है, ऐसा कोटिक्रम । उपर्युक्ति तीनों बातें भगवान महावीर के विचार तथा आचार में से फलित हो कर आगमों में प्रथित हुई हैं। कोई एक व्यक्ति या व्यक्तिसमूह कैसा ही आध्यात्मिक क्यों न हो पर जब वह संयमलक्षी जीवनधारण का भी प्रश्न सोचता है तब उस में से उपयुत विश्लेषण तथा कोटिक्रम अपने आप ही फलित हो जाता है । इस दृष्टि से देखा जाय तो कहना पड़ता है कि आगे के जैन वाङ्मय में अहिंसा के संबंध में जो विशेष ऊहापोह हुआ है उस का मूल आधार तो प्राचीन आगमों में प्रथम से ही रहा । समूचे जैन वाङ्मय में पाए जाने वाले अहिंसा के ऊहापोह पर जब हम दृष्टिपात करते हैं, तब हमें स्पष्ट दिखाई देता है कि जैन वाङ्मय का अहिंसासंबंधी ऊहापोह मुख्यतया चार बलों पर अवलंबित है। पहला तो यह कि वह प्रधानतया साधु जीवन का ही अतएव नवकोटिक - पूर्ण अहिंसा का ही विचार करता है। दूसरा यह कि वह ब्राह्मण परंपरा में विहित मानी जाने वाली और प्रतिष्ठित समझी जाने वाली यज्ञीय आदि अनेकविध हिंसाओं का विरोध करता है। तीसरा यह कि वह अन्य श्रमण परंपराओं के त्यागी जीवन की अपेक्षा भी जैन श्रमण का त्यागी जीवन विशेष नियत्रित रखने का आग्रह रखता है। चौथा यह कि वह जैन परंपरा के ही अवान्तर फिरकों में उत्पन्न होने वाले पारस्परिक विरोध के प्रभों के निराकरण का भी प्रयत्न करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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