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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय - जैनधर्म की अहिंसा का स्वरूप विस्तार से वर्णन किया है । हरिभद्रसूरि की उक्ति में कई विशेषताएँ हैं जिन्हें जैन वाङ्मय को सर्व प्रथम उन्हीं की देन कहनी चाहिए। उन्हों ने उपदेशपद' में अर्थानुगम के चिरप्रचलित चार भेदों को कुछ मीमांसा आदि दर्शनज्ञान का ओप दे कर नये चार नामों के द्वारा निरूपण किया है। दोनों की तुलना इस प्रकार है१. प्राचीन परंपरा २. हरिभद्रीय १ पदार्थ १ पदार्थ २ पदविग्रह २ वाक्यार्थ ३ चालना ३ महावाक्यार्थ ४ प्रत्यवस्थान ४ ऐदम्पर्यार्थ हरिभद्रीय विशेषता केवल नये नाम में ही नहीं है । उन की ध्यानदेने योग्य विशेषता तो चारों प्रकार के अर्थबोध का तरतमभाव समझाने के लिए दिए गए लौकिक तथा शास्त्रीय उदाहरणों में है। जैन परंपरा में अहिंसा, निर्ग्रन्थत्व, दान और तप आदि का धर्मरूप से सर्वप्रथम स्थान है, अतएव जब एक तरफ से उन धर्मों के आचरण पर आत्यन्तिक भार दिया जाता है, तब दूसरी तरफ से उस में कुछ अपवादों का या छूटों का रखना भी अनिवार्य रूपसे प्राप्त हो जाता है । इस उत्सर्ग और अपवाद विधि की मर्यादा को ले कर आचार्य हरिभद्र ने उक्त चार प्रकार के अर्थबोधों का वर्णन किया है। जैनधर्म की अहिंसा का स्वरूप अहिंसा के बारे में जैन धर्म का सामान्य नियम यह है कि किसी भी प्राणी का किसी भी प्रकार से घात न किया जाय । यह ‘पदार्थ' हुआ। इस पर प्रश्न होता है कि अगर सर्वथा प्राणिघात वर्ण्य है तो धर्मस्थान का निर्माण तथा शिरोमुण्डन आदि कार्य भी नहीं किए जा सकते जो कि कर्तव्य समझे जाते हैं । यह शंकाविचार 'वाक्यार्थ' है । अवश्य कर्तव्य अगर शास्त्रविधिपूर्वक किया जाय तो उस में होने वाला प्राणिघात दोषावह नहीं, अविधिकृत ही दोषावह है। यह विचार 'महावाक्यार्थ' है । अन्त में जो जिनाज्ञा है वही एक मात्र उपादेय है ऐसा तात्पर्य निकालना 'ऐदम्पर्यार्थ' है । इस प्रकार सर्व प्राणिहिंसा के सर्वथा निषेधरूप सामान्य नियम में जो विधिविहित अपवादों को स्थान दिलाने वाला और उत्सर्ग-अपवादरूप धर्ममार्ग स्थिर करने वाला विचार-प्रवाह ऊपर दिखाया गया उस को आचार्य हरिभद्र ने लौकिक दृष्टान्तों से समझाने का प्रयत्न किया है। अहिंसा का प्रश्न उन्हों ने प्रथम उठाया है जो कि जैन परंपरा की जड है । यों तो अहिंसा समुच्चय आर्य परंपरा का सामान्य धर्म रहा है। फिर भी धर्म, क्रीडा, भोजन आदि अनेक निमित्तों से जो विविध हिंसाएँ प्रचलित रहीं उनका आत्यन्तिक विरोध जैन परंपरा ने किया। इस विरोध के कारण ही उस के सामने प्रतिवादियों की तरफ से तरह तरह के प्रश्न होने लगे कि अगर जैन सर्वथा हिंसा का निषेध करते हैं वे खुद १देखो, उपदेशपद मा० ८५९-८८५ । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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