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२४ · ज्ञानबिन्दुपरिचय-श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित मति दिवाकरश्री का तीसरा प्रयत्न आगम को अतिरिक्त प्रमाण न माननेवाली दूसरी विचारधारा के असर से अछूता नहीं है। इस तरह हम देख सकते हैं कि अपनी सहोदर अन्य दार्शनिक परंपराओं के बीच में ही जीवनधारण करने वाली तथा फलने फुलने वाली जैन परंपरा ने किस तरह उक्त दोनों विचारधाराओं का अपने में कालक्रम से समावेश कर लिया।
(२) श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित मति [१६] मति ज्ञान की चर्चा के प्रसङ्ग में श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित भेद का प्रश्न मी विचारणीय है। श्रुतनिश्रित मति ज्ञान वह है जिसमें श्रुतज्ञानजन्य वासना के उद्बोध से विशेषता आती है । अश्रुत-निश्रित मति ज्ञान तो श्रुतज्ञानजन्य वासना के प्रबोध के सिवाय ही उत्पन्न होता है । अर्थात् जिस विषय में श्रुतनिश्रित मति ज्ञान होता है वह विषय पहले कभी उपलब्ध अवश्य होता है, जब कि अश्रुतनिश्रित मति ज्ञान का विषय पहले अनुपलब्ध होता है । प्रश्न यह है कि 'ज्ञानबिन्दु' में उपाध्यायजीने मतिज्ञान रूप से जिन श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित दो भेदों का उपर्युक्त स्पष्टीकरण किया है उन का ऐतिहासिक स्थान क्या है । इस का खुलासा यह जान पड़ता है कि उक्त दोनों भेद उतने प्राचीन नहीं जितने प्राचीन मति ज्ञान के अवग्रह आदि अन्य भेद हैं। क्यों कि मति ज्ञान के अवग्रह आदि तथा बहु, बहुविध आदि सभी प्रकार श्वेताम्बरदिगम्बर वाङ्मय में समान रूप से वर्णित हैं, तब श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित का वर्णन एक मात्र श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में है । श्वेताम्बर साहित्य में भी इन भेदों का वर्णन सर्व प्रथम 'नन्दीसूत्र में ही देखा जाता है । 'अनुयोगद्वार' में तथा 'नियुक्ति' तक में श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित के उल्लेख का न होना यह सूचित करता है कि यह भेद संभवतः 'नन्दी' की रचना के समय से विशेष प्राचीन नहीं । हो सकता है कि वह सूझ खुद नन्दीकार की ही हो ।
- १ यद्यपि दिवाकर श्री ने अपनी बत्तीसी (निश्चय. १९) में मति और श्रुत के अभेद को स्थापित किया है फिर भी उन्हों ने चिर प्रचलित मति-श्रुत के मेद की सर्वथा अवगणना नहीं की है। उन्हों ने न्यायावतार में आगम प्रमाण को स्वतन्त्र रूप से निर्दिष्ट किया है । जान पड़ता है इस जगह दिवाकरश्री ने प्राचीन परंपरा का अनुसरण किया और उक्त बत्तीसी में अपना खतन्त्र मत व्यक्त किया । इस तरह दिवाकरश्री के प्रन्थों में भागम प्रमाण को खतन्त्र अतिरिक्त मानने और न मानने वाली दोनों दर्शनान्तरीय विचारधाराएँ देखी जाती हैं जिन का स्वीकार ज्ञानबिन्दु में उपाध्यायजी ने भी किया है।
२ देखो, टिप्पण पृ. ७०।
३ यद्यपि अश्रुतनिधितरूप से मानी जाने वाली औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों का नामनिर्देश भगवती (१२.५.) में और आवश्यक नियुक्ति (गा. ९३८) में है, जो कि अवश्य नंदी के पूर्ववर्ती हैं। फिर भी वहाँ उन्हें अश्रुतनिश्रित शब्द से निर्दिष्ट नहीं किया है और न भगवती आदि में अन्यत्र कहीं श्रुतनिश्रित शब्द से अवग्रह आदि मतिज्ञान का वर्णन है। अतएव यह कल्पना होती है कि अवग्रहादि रूप से प्रसिद्ध मति ज्ञान तथा औत्पत्तिकी आदि रूपसे प्रसिद्ध बुद्धियों की क्रमशः श्रुतनिधित और अश्रुतनिश्रित रूपसे मति ज्ञान की विभागव्यवस्था नन्दि-कारने ही शायद की हो।
४ खो, नन्दीसूत्र, सू. २६, तथा टिप्पण पृ०७०। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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