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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय -मति और श्रुत की भेदरेखा का प्रयन २१ ज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण ये दोनों उत्तर प्रकृतियाँ बिलकुल जुदी मानी गई हैं । अतएव यह भी सिद्ध है कि उन प्रकृतियों के आवार्य रूपसे माने गये मति और श्रुत ज्ञान भी स्वरूप में एक दूसरे से भिन्न ही शास्त्रकारों को इष्ट हैं । मति और श्रुत के पारस्परिक भेद के विषय में तो पुराकाल से ही कोई मतभेद न था और आज भी उस में कोई मतभेद देखा नहीं जाता; पर इन दोनों का स्वरूप इतना अधिक संमिश्रित है या एक दूसरे के इतना अधिक निकट है कि उन दोनों के बीच भेदक रेखा स्थिर करना बहुत ही कठिन कार्य है; और कभी कभी तो वह कार्य असंभव सा बन जाता है । मति और श्रुत के बीच भेद है या नहीं, अगर है तो उसकी सीमा किस तरह निर्धारित करना; इस बारे में विचार करने वाले तीन प्रयत्न जैन वाङ्मय में देखे जाते हैं। पहला प्रयत्न आगमानुसारी है, दूसरा आगममूलक तार्किक है, और तीसरा शुद्ध तार्किक है । [8 ४९ ] पहले प्रयत्न के अनुसार मति ज्ञान वह कहलाता है जो इन्द्रिय- मनोजन्य है तथा अवग्रह आदि चार विभागों में विभक्त है । और श्रुत ज्ञान वह कहलाता है जो अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य रूप से जैन परंपरा में लोकोत्तर शास्त्र के नाम से प्रसिद्ध है, तथा जो जैनेतर वाङ्मय लौकिक शास्त्ररूप से कहा गया है। इस प्रयत्न में मति और श्रुत की भेदरेखा सुस्पष्ट है, क्यों कि इस में श्रुतपद जैन परंपरा के प्राचीन एवं पवित्रं माने जाने वाले शास्त्र मात्र से प्रधानतया सम्बन्ध रखता है, जैसा कि उस का सहोदर श्रुति पद वैदिक परंपरा के प्राचीन एवं पवित्र माने जाने वाले शास्त्रों से मुख्यतया सम्बन्ध रखता है । यह प्रयत्न आगमिक इस लिए है कि उस में मुख्यतया आगमपरंपरा कां ही अनुसरण है। 'अनुयोगद्वार' तथा 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' में पाया जाने वाला श्रुत का वर्णन इसी प्रयत्न का फल है, जो बहुत पुराना जान पड़ता है । - देखो, अनुयोगद्वार सूत्र सू० ३ से और तत्वार्थ० १.२० । [१५, २९ से ] दूसरे प्रयत्न में मति और श्रुत की भेदरेखा तो मान ही ली गई है; पर उस में जो कठिनाई देखी जाती है वह है भेदक रेखा का स्थान निश्चित करने की । पहले की अपेक्षा दूसरा प्रयत्न विशेष व्यापक है; क्यों कि पहले प्रयत्न के अनुसार श्रुत ज्ञान जब शब्द से ही सम्बन्ध रखता है तब दूसरे प्रयत्न में शब्दातीत ज्ञानविशेष को भी त मान लिया गया है। दूसरे प्रयत्न के सामने जब प्रश्न हुआ कि मति ज्ञान में भी कोई अंश सशब्द और कोई अंश अशब्द है, तब सशब्द और शब्दातीत माने जाने वाले श्रुत ज्ञान से उस का भेद कैसे समझना ? । इसका जवाब दूसरे प्रयत्न ने अधिक गहराई में जा कर यह दिया कि असल में मतिलब्धि और श्रुतलब्धि तथा मत्युपयोग और तोपयोग परस्पर बिलकुल पृथक् हैं, भले ही वे दोनों ज्ञान सशब्द तथा अशब्द रूप से एक दूसरे के समान हों। दूसरे प्रयत्न के अनुसार दोनों ज्ञानों का पारस्परिक भेद लब्धि और उपयोग के भेद की मान्यता पर ही अवलम्बित है; जो कि जैन वत्वज्ञान में चिर प्रचलित रही है । अक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत रूप से जो श्रुत के भेद जैन वाङ्मय में हैं- - वह इस दूसरे प्रयत्न का परिणाम है । 'आवश्यक निर्युक्ति' ( गा० १९ ) और 'नन्द्रीसूत्र' ( सू० ३७) में जो 'अक्खर सन्नी सम्मं' आदि चौदह श्रुतभेद सर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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