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________________ भूतपूर्व सम्पादकवर्गालेखित ज्ञानविन्दु परिचय | ग्रन्थकार प्रस्तुत ग्रन्थ 'ज्ञानविन्दु' के प्रणेता वे ही वाचकपुङ्गव श्रीमद् यशोविजयजी हैं जिनकी एक कृति 'जैनतर्कभाषा' इतः पूर्व इसी 'सिंघी जैन प्रन्थमाला' में, अष्टम मणि के रूप में, प्रकाशित हो चुकी है। उस जैनतर्कभाषा के प्रारम्भ' में उपाध्यायजी का सप्रमाण परिचय दिया गया है। यों तो उनके जीवन सम्बन्ध में, खास कर उनकी नाना प्रकार की कृतियों के सम्बन्ध में, बहुत कुछ विचार करने तथा लिखने का अवकाश है, फिर भी इस जगह सिर्फ उतने ही से सन्तोष मान लिया जाता है, जितना कि तर्कभाषा के प्रारम्भ में कहा गया है । यद्यपि प्रन्थकारके बारे में हमें अभी इस जगह अधिक कुछ नहीं कहना है, तथापि प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु नामक उनकी कृतिका सविशेष परिचय कराना आवश्यक है और इष्ट मी । इसके द्वारा ग्रन्थकार के सर्वांगीण पाण्डित्य तथा ग्रन्थनिर्माणकौशल का भी थोड़ा बहुत परिचय पाठकों को अवश्य हो ही जायगा । ग्रन्थ का बाह्य स्वरूप प्रन्थ के बाह्य स्वरूप का विचार करते समय मुख्यतया तीन बातों पर कुछ विचार करना अवसरप्राप्त है । १ नाम, २ विषय और ३ रचनाशैली । १. नाम प्रन्थकार ने स्वयं ही प्रन्थ का 'ज्ञानविन्दु' नाम, प्रन्थ रचने की प्रतिज्ञा करते समय प्रारंभ' में तथा उस की समाप्ति करते समय अन्त' में उल्लिखित किया है। इस सामासिक नाम में 'ज्ञान' और 'बिन्दु' ये दो पद हैं। ज्ञान पद का सामान्य अर्थ प्रसिद्ध ही है और बिन्दु का अर्थ है बूँद । जो प्रन्थ ज्ञान का बिन्दु मात्र है अर्थात् जिसमें ज्ञान की चर्चा बूंद जितनी अति अल्प है वह ज्ञानबिन्दु - ऐसा अर्थ ज्ञानबिन्दु शब्द का विवक्षित है । जब प्रन्थकार अपने इस गंभीर, सूक्ष्म और परिपूर्ण चर्चावाले ग्रन्थ को भी बिन्दु कह कर छोटा सूचित करते हैं, तब यह प्रश्न सहज ही में होता है, कि क्या प्रन्थकार, पूर्वाचार्यों की तथा अन्य विद्वानों की ज्ञानविषयक अति विस्तृत चर्चा की अपेक्षा, अपनी प्रस्तुत चर्चा को छोटी कह कर वस्तुस्थिति प्रकट करते हैं, या आत्मलाघव प्रकट करते हैं; अथवा अपनी इसी विषय की किसी अन्य बड़ी कृति का भी सूचन करते हैं ? । इस त्रि-अंशी प्रश्न का जब भी सभी अंशों में हाँ रूप ही है । उन्हों ने जब यह कहा, कि मैं श्रुतसमुद्र' से 'ज्ञानदिन्दु' का सम्यग् उद्धार करता हूँ, तब उन्हों ने अपने श्रीमुख से यह तो कह ही दिया कि मेरा यह प्रन्थ चाहे जैसा क्यों न हो फिर भी वह श्रुतसमुद्र का तो एक बिन्दु मात्र है । १ देखो, जैनतर्कभाषा गत 'परिचय' पृ० १-४ । २ " ज्ञानबिन्दुः श्रुताम्भोधेः सम्यगुद्धियते मया"- १० १। ३ " खादादस्य शानबिन्दोः " - पृ० ४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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