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________________ हस्तप्रतों में से पाठों की पसंदगी का प्रश्न साधन उपलब्ध हैं उनका उपयोग हमें सावधानीपूर्वक करना पड़ेगा । उस समय की पालि भाषा का स्वरूप हमारे सामने है और अशोक के अभिलेखों की भाषा भी हमारे सामने है । आगमों की हस्तप्रत १२वीं शताब्दी से पहले की हमारे सामने नहीं है और तब तक उनकी भाषा में कितना परिवर्तन आ गया होगा यह भी एक समस्या होते हुए भी इसका भी समाधान संभव है । मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं के क्रमिक विकास के संबंध में पर्याप्त संशोधन कार्य हुआ है, और उसके आधार से भी मूल अर्धमागधी के स्वरूप को निर्धारित किया जा सकता है। अर्धमागधी आगम ग्रंथों की हस्तप्रतों में भाषा प्राचीन और परवर्ती रूपों का सम्मिश्रण मिलता है, परंतु सभी प्रतों में सूत्रों के सभी पाठों में भाषा की एकरूपता नहीं है । कहीं पर प्राचीन रूप मिलता है तो कहीं पर परवर्ती रूप मिलता है। एक ही शब्द के अनेक रूप स्थल - स्थल पर पाये जाते हैं और ऐसी हालत में हम प्राचीन रूपों को अलग कर सकते हैं जिनको कुछ अंश में व्याकरण के आधार पर और कुछ अंश में अशोक की और पालि भाषा के सहारे प्रमाणित माना जा सकता है । इस कार्य के लिए सभी उपलब्ध हस्तप्रतों के बिभिन्न पाठों का संग्रह करके उन्हें अकारादि क्रम से जमाना बहुत आवश्यक है और इसके बिना सभी प्राचीन पाठों को ढूंढ निकालना अशक्य है । कार्य कठिन अवश्य है परंतु असंभव नहीं है । T इस सिद्धांत के आधार पर किस तरह से हस्तप्रतों में से पाठों की पसंदगी (चुनाव) कि जा सकती है उसके कुछ उदाहरण यहाँ पर प्रस्तुत करता हूँ जिस पर विद्वान लोग ध्यान दें तो पुनः संपादन का कार्य अतिदुष्कर' नहीं होगा ऐसा मैं मानता हूँ। अभी तक अर्धमागधी आगमग्रंथों के संपादन की साधारणतः यह पद्धति रही है कि प्राचीनतम प्रत में जो पाठ मिलता हो या अधिक से अधिक प्रतों में जो पाठ मिलता हो उसे स्वीकारा जाय । इस पद्धति में यह दोष पाया गया है कि कभी कभी प्राचीनतम पाठ रह गया है। और कालानुक्रम से अधिक प्रचलित परवर्ती पाठ अपनाया गया है। एक ही अध्ययन या एक ही सूत्र में कभी कभी विविधकाल के एक ही शब्द-रूप के विभिन्न पाठ अपनाये गये हैं। कभी कभी विभिन्न प्रतों में अलग अलग पाठ मिलते हैं। एक ही काल की रचना में किसी एक ही स्थल पर विभिन्न पाठों का मिलना यह स्पष्ट बतलाता है कि लेहियों और संपादकों के ऊपर परवर्ती व्याकरण का प्रभाव अधिक रहा है और उन्होंने भाषा की प्राचीनता और रचनास्थल का ध्यान रखे बिना उनके अपने ही सिद्धातों के अनुसार * परवर्ती पाठ अपनाये हैं' । इस संबंध में कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं १. 'यथा' के लिए ताड़पत्र की प्रतों में अधिकतर 'जहा' पाठ मिलता है, परंतु Jain Education International For Private & Personal Use Only ૧૫૧ - www.jainelibrary.org
SR No.005251
Book TitleHastprat Vidya ane Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherGujarat Vidyapith Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size9 MB
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