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प्राकृत- अपभ्रंश पांडुलिपियों की सम्पादन प्रक्रिया
(३) इसी प्रकार मूल ग्रन्थों की व्याख्या और टीका आदि में आये हुए कई पद कालान्तर में मूलपाठ के साथ मिला दिये जाते थे ।
(४) लिपि की अस्पष्टता एवं
(५) लिपिकार का कवित्व भी कई बार अनेक पाठान्तरों को जन्म देता रहा I (६) प्रदेशगत भिन्नता से भी कई पाठान्तर पांडुलिपियों में हुए हैं । '
अतः सम्पादन कार्य में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए इन बातों को ध्यान में रखते हुए ही पाठ-निर्धारण करना चाहिए | जैन ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेवसूरि के समक्ष भी प्रायः ये ही कठिनाइयाँ थीं । उन्होंने लिखा है कि अर्थबोध की सम्यक् गुरू परम्परा (सत् सम्प्रदाय) तथा अर्थ की आलोचनात्मक स्थिति (सत् ऊह ) प्राप्त नहीं है। अनेक वाचनाएं हैं । पुस्तके अशुद्ध हैं। कृतियां सूत्रात्मक होने के कारण बहुत गंभीर हैं । अर्थविषयक मतभेद भी हैं। फिर भी सम्पादन कार्य करना है । इस प्रकार के अथवा परिश्रमी जैनाचार्यों द्वारा ही प्राचीन ग्रन्थ सम्पदा की सुरक्षा हुई है, जो आज हमारी एक थाती के रूप में है ।
प्राकृत साहित्य के अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कि जैन संघ की जीवन-पद्धति में ज्ञान-मीमांसा सर्वोपरि रही है। मुनि एवं गृहस्थ धर्म का महत्त्वपूर्ण पक्ष स्वाध्याय रहा है | आत्म-चिन्तन में स्वाध्याय जितना उपयोगी है, उतना ही शास्त्र लेखन ग्रन्थ संरक्षण में उसका महत्त्व है। जैन समाज में प्राचीन समय से ही यह धारणा हो गयी थी कि शास्त्र - सम्बन्धी कोई भी कार्य करने से पुण्यलाभ होता है। अपभ्रंश कवि नरसेन ने कहा है:
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एहु सत्थु जो लिहइ लिहावइ पढइ पढावइ कहइ कहावइ । जो रु - णारि एहु मणु भावइ पुणह अहिउ पुण्णफलु पाव ।।
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- (वडमाणकहा)
स्वाध्याय की इसी प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप सारे देश में ग्रन्थ भण्डारों की स्थापना हुई है जैन, अजैन सभी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की सुरक्षा इन ग्रन्थ भण्डारों के प्रबन्ध द्वारा हुई हैं । सम्पादन कला से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सामग्री इन जैन भण्डारों में सुरक्षित है । अतः ये ग्रन्थ भण्डार किसी भी भाषा व साहित्य के ग्रन्थ-सम्पादन के कार्य के लिए आज अपरिहार्य हो गये हैं । राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों में इस दृष्टि से विपुल और महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हैं ।
जैन साहित्य की पांडुलिपियों के अवलोकन से सम्पादन कला के लिए उपयोगी कई तथ्य प्राप्त होते हैं । जैन पांडुलिपियों के मर्मज्ञ विद्वान स्व. मुनि श्री पुण्य - विजयजी ने
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