SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १६. ) बिलकुल जुदा प्रकारनी छे. जैनधर्मनुं पहेलुं स्वरूप एटले विशुद्ध वैदिक धर्म ए छे. पछी अनेक कारणोयी ते जूदो धर्म छे एम मनायो. ( आ जैनधर्मनुं पाछळनुं स्वरूप ) अने पछी लोकमत प्रमाणे कुमारिलभट्ट विगेरे मोटा मोटा महापुरुषो जैनोनो अने बौद्धोनो जगोजगो पर पराभव करी तेओना धर्मनो सर्वथा प्रकारे ( जडा मूलथी ) नाश करी वैदिक धर्मनी स्थापना करी आ जैनधर्मनुं छेल्लुं स्वरूप. सामान्य लोकोना मतमां अने अमारा मतमां जे तफावत छे ते हवे कहीए छे— कडकडित तीव्र वैराग्यादिना आचरणोथी पछी राज्याश्रयथी अने स्वार्थत्यागथी जैनोए भारतीय लोकसमाज उपर जे क्रियाओ करी अने अनेक सद्गुणोथी जे फेरफार कर्यो, जे जुदी जुदी संस्थानुं स्थापन करी अनेक विधिओ शरु करी, तेमज लोकोने सन्मार्ग तरफ झुकाववा माटे जे साहित्य निर्माण कर्यु अने वैदिक धर्मानुयायिओमां रहेला- प्राचीन चित्तशुद्धि, सदाचरण, चारित्र्य, इत्यादि विषयोना संबन्धमां आपणा हृदयने हरी लेनारा अने तल्लीन करीने ज छोडी मुकनारा साहित्यथी विषयरसमां तन्मय यई गयेलाओने मात्र श्रवणथीज तत्काल ठेकाणे लावनार जे , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy