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स्वकस्तैरकार्येव मोक्षो भवो वा
स एकः परात्मा गतिमे जिनेन्द्रः ॥ २८ ॥ भावार्थ हे जीव ! आश्रवने त्यागी संवरनो आश्रय ले, एवा सामान्य वैराग्यवाळा पुरुषो होवा छतां पण जे परम प्रमुनी आज्ञाना सेवनथी पोतानो भव ( जन्म ) मोक्षरूप बनाव्यो छे अर्थात् जीवनमुक्तरूप थया छे एवो ते एकज जिनेन्द्र परमात्मा अमारा कल्याणने माटे थाओ ॥ २८ ॥
शुभध्याननीरैरुरीकृत्य शौचं
सदाचारदिव्यांशुकैर्भूषिताङ्गाः । बुधाः केचिदईन्ति यं देहगेहे
स एकः परात्मा गतिमे जिनेन्द्रः ॥ २९ ॥ भावार्थ-केटलाक महापुरुषो धर्मध्यानरूप जलयी शौच अंगीकार करीने अने सदाचाररूप दिव्य वस्त्रोथी भूषित थएला, पोताना शरीररूप मन्दिरमा जे परमात्माना स्वरूपनी पूना करे छे. ते एकज जिनेन्द्र परमात्मा अमारा कल्याणने माटे थाओ॥ २९ ॥
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