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________________ ૫૨૨ જિન શાસનનાં श्रुतयात्राका सुखद-सार साहित्य एवं श्रुतके माध्यमसे शासनकी अनुपम सेवा (६) आराधना-उपासना :-अरिहंत परमेष्ठिकी द्रव्य अविरत 40-50 सालोंसे कर रहे श्रुतानुरागी साहित्यकार श्री और भावपूजा जैसी पावनकारी साधनाके बिना साधक नंदलालभाई देवलुकके द्वारा संपादित 27 महाग्रंथोका सार स्वयं पूज्य नहि बन सकता। मूर्तिपूजा, जिनालय सर्जन यहाँ पर इसलिये भी प्रस्तुत किया जा रहा है, ताकि जैनधर्म, अथवा तीर्थोका जिर्णोद्धार इत्यादिकी उपेक्षा करनेवाला जिनशासन, जिनेश्वर-जिनालय इत्यादि अनेक विषयों पर स्वयं लोकसमाजकी उपेक्षा पाता है। सम्यक समझ सभी को सरलतासे संप्राप्त हो सके। निम्नलिखित त (७) एकद्दत्रीय शासन :-वही शासनपति या युगप्रधान 27 PARAGRAPHS एक अपेक्षासे 27 ग्रंथोका अथवा बन सकता है, जो मिथ्यात्व, मिथ्या देवी-देवताके स्थान जयवंता जिनशासनका सार है। पर देवाधिदेवकी पूजा-भक्तिमें श्रद्धावंत संयत है। अपने (१) जैनधर्म :-अनादि अनंत है। अनंत तीर्थंकर हो गये, माता-पिताकी उपेक्षा करनेवाला कभी महान नहि बन और आगामी कालमें भी अनंत परमात्माओंका जन्म सकता। होनेवाला है। भरत और ऐरावतक्षेत्रोमें 24-24 (E) कर्मवादकी अनुपम देन :-पूरा जैन धर्म जिनेश्वर भगवानोकी श्रेणियाँ होती है, जबकि महाविदेह क्षेत्र भगवंतोंकी अविचल वाणीके प्रभावसे ईश्वरवादकी जगह तीर्थपतिओंसे सदाबहार है। कर्मवाद पर आधारित है। जैसा हम करेंगे वैसा ही फल (२) चतुर्विध श्रीसंघ :-12 गुणधारी केवलज्ञानी तीर्थंकर पायेंगे। सभी जीव अपने कर्मोके कर्ता और भोक्ता है, भगवान साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविकारूपी चतुर्विध ईश्वर दुःख-सुख नहि देता है। श्रीसंघकी स्थापना करते है। भगवंतोकी यह स्थापना (E) महामंत्र नवकार :-चमत्कारोंसे भरपूर नमस्कार विश्वकी श्रेष्ठतम संस्था है। संघोंकी एकता हीरा मंत्र ही महामंत्र है, इसलिये कहना चाहिये कि नवकार रत्नोंकी खान है। नदी नहि दरिया है, चंद्र और तारा नहि किन्तु महासूर्य (३) पूजातिशय :-भरत चक्रवर्तीके समयकालसे आजतक है। नौ पदमय नवकार और नौपदजीकी आराधना अविरत परमात्मा प्रभुकी पूजा-भक्ति चली आ रही है। श्रेष्ठतम है। जिनबिंब-जिनालय, तीर्थ एवं विविध प्रकारी भक्ति । (१०) भवक्षमणमुक्ति :-परमेश्वर जिनदेवोने ही मोक्षके और पूजा नाम-आकृति, द्रव्य और भावसे अर्चना उपाय दिखाये, अनेकोको मार्गदर्शन देकर भवभ्रमणसे पूर्वकालमें भी थी, आज भी है। मुक्त किया है। मुक्ति, कैवल्यज्ञान, पुलाक इत्यादि (४) गुणप्रधान धर्म :-जिनशासन व्यक्ति पूजासे भी अनेकप्रकारी लब्धियोंकी अनुपम बातें सिर्फ जैनधर्ममें अधिक महत्व गुणोंकी उपासनाको देता है। अहिंसा- ही सुनने मिलती है। सत्य-अचौर्य, दया-दानादि गुणोके बगैरका धर्म धोखा । (११) गुरुतत्त्व चिंतन :-स्वदोषदर्शन और या धतिंग बन जाता है। गुणानुराग और गुणानुवाद परगुणदर्शन करनेकी कलाका जानकार ही स्वयंगुरु जिनशासनकी आधारशिला है। है, जबकि आत्मप्रशंसा और परदोषद्रष्टाको धर्म करने वैश्विक प्रभाव :-जैनीयोंके विदेशगमन या सतत अपने सर पर एक गुरु रखना आवश्यक है। फिर गमनागमनसे वर्तमानमें चारो ओर जो जिनशासनकी भी परमगुरु परमात्मा है। प्रभावना हो रही है, उसका मूल कारण है श्रेष्ठतम (१२) अल्प संख्यक जैन :-आर्य ऐसे भारतवर्षमें आचारसंहिता और अहिंसापालन। जैनोका परिचय भी अनार्योकी जनसंख्याकी वृद्धि जैसे चिंताजनक मानी धर्मभावना पैदा कर देता है। जाती है, वैसे ही जिनकुलमें ही जन्म फिर भी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005120
Book TitleJinshasan na Zalhlta Nakshatro Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal B Devluk
PublisherArihant Prakashan
Publication Year2011
Total Pages720
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size35 MB
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