SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० સ્થવિરાવલી. E SEASE जैन श्रमणी की प्राचीन प्रतिमा (ईस्वी सन् प्रथम द्वितीय शताब्दी) चित्र के उपर के भाग में (किसी व्यक्ति का) पद्यासन दीखाई दे रहा है, संभवित यह जिनेश्वर का भी हो सकता है. (जैन धर्मकी श्रमणियों का बृहद् इतिहास - डॉ. साध्वी विजयश्री आर्या' तेरापंथी आचार्यों की भी मूर्तियां बनीं आचार्य श्री महाप्रज्ञजी का साहसिक कदम स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय में गुरुओं की मूर्तियों, चरणों, समाधियों का निर्माण श्वे. मू.पू. खरतगच्छ परम्परा के अनुरूप दादाबाड़ियों की तर्ज पर जगह जगह हो चुका है. स्थानकवासी मुनियों, महासतियों की प्रेरणा से जिन मंदिर भी बन चुके हैं. अनेक स्थानों में गुरु-गुरुणियों के चित्र लगाये जा चुके हैं. तेरापंथ सम्प्रदाय के प.पू. आचार्य की प.पू. स्व. आचार्य श्री तुलसीजी की मूर्ति एवं स्वयं आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की मूर्ति भी बन गई है. - साप्ताहिक श्रमण भारती, सोमवार ७ जनवरी २००८ में से आभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005025
Book TitleSthaviravali ane Teni Aaspas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunsundarvijay
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year2007
Total Pages232
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy