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________________ सम्यक्त्व और ग्रन्थिभेदकी प्रक्रिया १) अंतरकरण के बाद जीव के निर्मल परिणाम से शुद्धपुंज के उदय से क्षयोपशमिक समकित की प्राप्ति गुणस्थानक-४। २) कोई जीव का मध्यस्थ परिणाम होने पर मिश्रमोहनीय के अर्ध शुद्ध पुंज के उदय से मिश्र गुणस्थानक-३ की प्राप्ति 15 ३) कोई जीव के कलुषित परिणाम से अशुद्ध पुंज के उदय से मिथ्यात्वगुणस्थानक-१ की प्राप्ति अंतरकरण के अंतर्मुहूर्त की अंतिम ६ आवलिका या जघन्यसे एक समय बाकी रहेनेसे किसी मंद परिणामी जीवको अनन्तानुबंधी का उदय होने से दूसरा सास्वादन गुणस्थानक प्राप्त करके अन्तरकरण के बाद मिथ्यात्व को प्राप्त करते है। मिथ्यात्व की द्वितीय स्थिति समकित मोहनीय : शुद्ध पुंज | मिन मोहनीय : अर्ध शुद्ध पुंज मिथ्यात्व मोहनीय : अशुद्ध पुंज त्रिपुंजीकरण प्रक्रिया का प्रारंभकाल • अपूर्व आत्मानंद की अनुभूति अंतर 90 • अंतरकरण काल में अंतर स्थितिगत दलिकों को उपर और नीचे की स्थिति में डालकर संपूर्ण खाली करे। उत्किरण प्रक्रिया उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के साथ कोई जीवको अंतर क्रिया के बाद मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति की स्प • अनिवृत्ति करण का संख्यातवा भाग • अंतरकरण-क्रिया काल • देश विरति -५ गुण • सर्व विरति -६ गुण • अप्रमत - ७ गुण होती है। संख्यात PhonFF अध्यवसायकी प्रति समय अनंत गुणविशुद्धि । अनिवृत्तिकरण में प्रवेश→ chode एक साथ प्रवेशक जीवों का समान अध्यवसाय - अनिवृत्ति १. अपूर्व स्थिति-बंध २. अपूर्व रसबंध ३. अपूर्व स्थितिघात ४.अपूर्व गुणश्रेणि → अपूर्वकरणमें प्रवेश विशुद्ध यथा प्रवृत्तिकरण तीव्र संवेग-निर्वेद से ग्रन्थिभेद •अर्धपुद्गलपरावर्त काल से अधिक संसार भ्रमण नहीं । --निबीड राग द्वेष की गूळ-घन-दुर्भेष-ग्रन्धि --- टळे वला दृष्टि ख • भव्य जीवका चरमावर्त में प्रवेश ति परिपाक, दोष • यथाप्रवृत्तिकरणसे भव्य-अभव्य-दुर्भव्य जीवो कर्मकी लघुतासे अनंती बार ग्रन्थी देशे आकर अपूर्व करण की विशुद्धि केअभाव से वापिस लौटते है। को तथा भवपरिणा संसार के सुख प्रति संसार के दुःख प्रति तीन राग उग्र द्वेष • नदी-घोल पाषाण न्याय से अनंत ।गाव मिथ्यात्व के योगसे | गाव मिथ्यात्व के उदय में ७० कोडाकोटी यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा आयुष्य जीव का संसार में परिभ्रमण | मिथ्यात्व की स्थिति बार बार बांध। बिना सात कों की स्थिति एक कोडा-८४ लाख योनि में. भविष्य में मात्र दो बार कास्थिति बांधे कोडी सागरोपममें चल्योपम के |.१४ राज लोक में वह द्विबंधक, एक असंख्यात भाग न्युन करे अर्थात .४ गति में बार बांधे वह सकृत्बंधक, उत्कृष्ट स्थिति न अंत:कोडाकोडीसागर प्रमाण बने। अनंत मात्र माता की घोपण घोडे ते आधुपबंधक। अली, प्राप्ति प्रवचन चरमावत हो चन-वाक्॥ Edello S onal पू. आनंदघनजी म. सा.
SR No.004987
Book TitleJain Tattvagyan Chitravali Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages64
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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