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________________ ४४२ कोहे घेवरखवओ, माणे सेवइयखुड्डुओ नाय। मायाएऽऽसाढभूई, लोभे केसरयसाहु त्ति।।७०।। खण्डइ पीसइ भुञ्जइ, कत्तइ लोढेइ विक्किणइ। पिजे दलइ विरोलइ, जेमइ जा गुव्विणि बालवच्छा य॥८६॥ खिवियन्नत्थमजोग्गं, मत्ताउ तेण देइ साहरिय। तत्थ सचित्ताचित्ते, चउभङ्गो कप्पइ उ चरमे।।८३।। गिहिणा सपरग्गामाइ-आणियं अभिहडं जईणट्ठा। तं बहुदोसं नेयं, पायडछन्नाइबहुभेय।।४६।। चुल्लक्खाइ सट्ठाणं, खीराइ परंपरं घयाइयरं। दव्वट्टिई जाव चिरं, अचिरं तिघरंतरं कप्प।।३९।। छुहवेयणयावच्च-सञ्जमसुज्झाणपाणरक्खट्ठा। इरियं च विसोहेडं, भुञ्जइ न उ रूवरसहेऊ।।९८॥ जं पढमं जावंतिय, पासंडजईण अप्पणो य कए। आरभइ तं तिमीसं ति, मीसजायं भवे तिविह।।३७॥ जइणो चरणविघाइत्ति-दाणमेयस्स नत्थि ओहेण। बीयपए जइ कत्थवि-पत्तविसेसे व होज जउ॥२०॥ जउछगणाइविलित्तं, उब्भिन्दिय देइ जं तमुब्भिन्नं। समणट्ठमपरिभोगं, कवाडमुग्घाडियं वा वि॥४८॥ जच्चाइधणाण पुरो, तग्गुणमप्पं पि कहिय जं लहइ। सो जाईकुलगणकम्म-सिप्पआजीवणापिण्डो॥६३|| जणणिजणगाइ पुव्वं, पच्छा सासुससुरयाइ जं च जई। आयपरवयं नाउं, सम्बन्धं कुणइ तदणुगुण।।७२।। जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। सा होइ निजरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स।।१०२॥ जावंतियमुद्देस, पासंडीणं भवे समुद्देस। समणाणं आएसं निग्गंथाणं समाएसं॥३०॥ जावन्तियजइपासंडियत्थमोयरइ तन्दुले पच्छा। सद्धा(ट्ठा) मूलारंभे, जमेस अज्झोयरो तिविहो।।५२॥ जीवा सुहेसिणो, तं सिवम्मि तं संजमेण सो देहे। सो पिण्डेण सदोसो, सो पडिकुट्ठो इमे ते य॥२॥ जेणइबहु अइबहुसो, अइप्पमाणेण भोयणं भुत्तं। हादेज्जव वामेजव मारेज्जव तं अजीरन्त।।९६॥ जो पिण्डाइनिमित्तं, कहइ निमित्तं तिकालविसयं पि। लाभालाभसुहासुह-जीविअमरणाइ सो पावो॥६२।। जोग्गमजोग्गं च दुवे, वि मिसिउं देइ जं तमुम्मीसं। इह पुण सचित्तमीसं, न कप्पमियरम्मि उ विभासा।।८९॥ ठवइ बलिं उव्वत्तइ, पिठराइ तिहा सपच्चवाया जा। देन्तेसु एवमाइसु, ओघेण मुणी न गिण्हन्ति॥८८।। तं चेव असंथरणे, संथरणे सव्वमवि विगिचंति। दुल्लहदव्वे असढा, तत्तियमेत्तं चिय चयंति॥५६।। तं पुण जं जस्स जहा, जारिसमसणे य तस्स जे दोसा। दाणे य जहापुच्छा, छलणा सुद्धी य तह वोच्छं।।८।। तत्थवि य थोवबहुयं, चउभङ्गो पढमतईयगाइण्णा। जइ तं थोवाहारं, मत्तगमुक्खविय वियरेजा।।८४।. तस्स कड तस्स निट्ठिय, चउभङ्गो तत्थ दुचरिमा कप्पा। फासुकडं रद्धं वा, निट्ठियमियरं कडं सव्व।।१०।। तह छक्काए गिण्हइ, घट्टइ आरम्भइ खिवइ दट्ठ जई। साहारणचोरियगं, देइ परकं परह्र वा॥८७।। तीए जुयं पत्तं पि हु, करीसनिच्छोडियं कयतिकप्पंकप्पइ जं तदवयवो, सहस्सघाई विसलवोव्व॥५४॥ थुणणे संबंधि संथवो, दुहा सो य पुव्व पच्छा वा। दायारं दाणाउ, पुव्वं पच्छा व जं थुणइ।।७१॥ थेरपहुपण्डवेविर-जरियन्धवत्तमत्तउम्मत्ते। करचरणछिन्नपगलिय-नियलण्डु य पाउयारूढो।।८५॥ थोवंति न पुटुं, न कहियं व गूढेहिं नायरो व कओ। इय छलिओ न लग्गइ, सुउवउत्तो असढभावो॥२४॥ दहिमाइलेवजुत्तं, लित्तं तमगेज्झमोहओ इहय। संसट्ठमत्तकरसाव-सेसदव्वेहिं अडभङ्गा॥९१॥ देविन्दविन्दवन्दिय-पयारविन्देऽभिवन्दियजिणिन्दे। वोच्छामि सुविहियहियं, पिण्डविसोहिं समासेण॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004970
Book TitlePind Vishuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri, Punyaratnasuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2009
Total Pages506
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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