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________________ सत्प्रयास और श्रुतभक्ति की अनुमोदना यह जानकर मन को अत्यंत प्रसन्नता मिली कि बहन महाराज श्री विस्तीर्णाजीने 'नवतत्त्व प्रकरण : बालावबोध' के आधार पर जो महानिबंध लिखना प्रारंभ किया था; वो पूर्ण हो गया और युनिवर्सिटीने वो महानिबंध मान्य भी कर लिया ! युनिवर्सिटी के द्वारा महानिबंध को मान्यता देना यह बहन श्रीविस्तीर्णाजी के सत्प्रयास का समादर है ! नवतत्त्वों को पुरातन एवं अर्वाचीन संयोगो मे सुगम्य बनाने के लिए आपने यह जो प्रयास किया है, मैं आपके इस प्रयास को भूरि-भूरि अनुमोदना करता हूं और आपसे कहना चाहता हूं कि यह तो आपने पहली सीढ़ी पर अपना पांव रखा है अभी शिखर तो दूर है । आपको अनवरत श्रुतज्ञान की सत्विषय स्वरूप इन सीढ़ियों पर क्रमशः चढते ही रहना है; रूकना नहीं है । धर्मतीर्थ की स्थापना के समय बीजबुद्धि के धनी, प्रकृष्ट ज्ञानी जिज्ञासु व्यक्तियोंने सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवंतो से मात्र 'किं तत्तं' तत्त्वविषयक जिज्ञासा ही तो प्रस्तुत की थी ! तत्त्वविषयक जिज्ञासा और तत्संबंधी समाधान ही जैन परंपरासंबंधी या लोक, अलोक में व्याप्त तत्त्व संबंधी सूक्ष्मातिसूक्ष्म सम्यग् - यथार्थ ज्ञान का मूल है । इस बात की साक्षी के लिए प्रत्येक तीर्थंकर भगवंत का जीवन चरित्र देखा जा सकता है। नवतत्त्वों की महत्ता और उपयोगिता के विषय में नवतत्त्व प्रकरण की दो गाथाओं को उद्धृत करना चाहता हूं. सम्मत्तं जीवाड़नवययत्थे, जो जाणड़ तस्स होइ सम्मत्तं 1 भावेण सद्दहंतो, अयाणमाणे वि अंतोमुहत्तमित्तं पि, फासियं हुज्ज तेसिं अवड्डपुग्गलपरियट्टो चेव संसारो जेहिं जो जीव अजीवादि नवतत्त्वों को सम्यग् रीत्या जानता है उसको सम्यक्त्व होता है; या फिर जो नवतत्त्वों को नही जानता है मगर सम्यग् भाव पूर्वक उन पर श्रद्धा रखता है तो भी उसको सम्यक्त्व होता है । ३ Jain Education International ।। ५१ ।। सम्मत्तं I ।।५३ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004936
Book TitleNavtattva Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVistirnashreeji
PublisherJaybhikkhu Sahitya Trust
Publication Year2003
Total Pages348
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size11 MB
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