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________________ को दूर किया है ऐसी, तथा मृग के द्वारा जिसका चरण सेवित है ऐसी, जो भय का नाश करने में कृपालु ऐसी तुम मेरी शरण बनो ! (मुझे अपनी शरण में लो) २८-२९-३० दया से निर्मल एवं मृद चित्तवालोंने, जिसकी सेवा की है, जिसने अपने चरणों की आश्रय लेनेवालो को विविध विद्या के श्रेष्ठ वरदान दिये हैं, वरुण की तरह जिसके यहाँ समस्त ऋद्धियाँ आयी है, ऐसी, जिसके उपकरण शोभित हैं, ऐसी, इन्द्रिय रूपी कुंजरों के प्रति अंकुश के समान कुशल ज्ञान से जिसने पाप के समूह का हरण किया है, ऐसी (तू) हे निर्मल देहवाली ! हे जननी ! आज तुम चन्द्रके समान शुभ मस्तक, सुन्दर चरण एवं निर्मल वचनों के विजृम्भितवाले (खिले हुए), ग्रहण किये गये गुणों का अत्यन्त विस्तार करती हो। ३१-३२-३३ । समाप्तम्। 23 पं दानविजयमुनिवर्यविरचितं ।श्रीसरस्वतीस्तोत्रम् । हे लज्जाशील (देवी)! जिन्होंने वीराकृति (क्रोध) और माया का तिरस्कार किया है तथा जो उत्तम ओंकार के उच्चारण (करने) में तत्पर हैं, एवं जो तुम्हारे प्रति विनयशील हैं, वे शीघ्र ही परम (उत्कृष्ट) इन्द्र-पद प्राप्त करते हैं। २० अडग राजाओसे वंदनीय ! हे श्रीमती वाग्वादिनी ! देवी ! भगवती! सरस्वती! मायारूप देवी को नमन करने पूर्वक प्राप्तवाणीसे उत्पन्न हुई एवं वरदानसे उत्पन्न हुई, मुझ पर तुष्टिको तू कह तू कह। २१ जिसके गुणों की माला विस्तृत रीति से बुनी हुई है, ऐसी हे (देवी !) हे माता ! तुम्हारी कृपा (प्रसाद) पाकर ज्ञान के विस्तार वाले कविगण जिनके संचार से भुवनरूपी वन का विस्तार सुवासित बना है ऐसे बनते हैं। २२ मनोहर लक्ष्मियों के शरीररूप! समस्त कलाओं के सर्वोत्तम भंडार स्वरूप! परमार्थ की परीक्षा हेतु, बुद्धि के लिए कष-पट्टिका (कसौटी) के समान, तेज की अपार सीमारूप, श्रुतसागर की नौकारूप, कवितारूपी कल्पवृक्ष के शुभ परिणाम का फल देनेवाले कंद(बीज) रूप, पराक्रमों के मूल स्वरूप, कीर्तियों की आदिरूप, ऐसी हे भुवन गुरुणी ! भारती ! तुम्हारी जय हो ! तुम्हारी जय हो ! २३/२४ जो देवी, पुष्प में रुचि रखती है (अथवा) जो पुष्पों से सुवासित है), जो विनोद-प्रमोद के मद से पुष्ट है, एवं जो दुष्ट आशासे विमुख है (अथवा अशुभ आशा से रहित के लिए लाभकारी है) वह देवी विकट पाप को शीघ्र ही दूर से जला डाले। २५ वेगवती गति की संगति रूपी तरंग से तरंगित (उछलते हुए), हरिणी के जैसे नेत्रों वाली, पूजित चरणोंवालें ने जिसका चरण स्वीकार किया है ऐसी, सूर्य की किरणो और वायु के मार्ग - (आकाश)- में ध्वजा (चन्द्र) के समान पुण्य-प्रतापवाली एवं प्रयत्न के बिना रत्नवर्धन कवि ने जिसके संस्तवन (स्तुति)रूपी पुष्प भलीभाँति उगाये हैं, ऐसी तुम सर्वदा निर्मल किरणोंवाली हे देवी ! मुझे हितकर मार्गरूपी मनोहर कवित्व और निर्मल श्रुत अतिशय प्रदान करो। २६/२७ कमल के पत्र के समान दीर्घ नेत्रोंवाली, कर्णरूपी झूले में चंचल कुंडलों से युक्त कपोलवाली, तथा मोतियों से जड़ी हुई चोली (कंचुकी)वाली शुभ तथा चतुर उक्तियों की तरंगो से युक्त, कल्लोलों से चंचल बने हुए समुद्र के फेन (झाग) के समान निर्मल कीर्ति एवं कला से सम्पन्न, श्रुतजननी, माता की भाँती निरुपम वात्सल्य से आर्द्र चित्तवाली और कुमतरूपी कौए के प्रति रात के समान, चंद्र तथा सूर्य के प्रकाश की तरह जिसने अज्ञानरूपी अंधकार सम्पूर्णशीतद्युति वक्त्रकान्ते ! लावण्यलीला-कमलानिशान्ते!। त्वत्पादपा भजतां निशाऽन्ते, मुखे निवासं कुरुतात् सुकान्ते ! ॥११॥ उपजाति: समञ्जुलं वादयती कराभ्यां, यत् (सा?) कच्छपी मोहितविश्वविश्वा। शक्तित्रिरुपा त्रिगुणाभिरामा, वाणी प्रदेयात् प्रतिभां भजत्सु ॥२॥ उप० विद्यानिधेौरिव गौर्विभाति, कुक्षिभरि सार्वजनीनचेताः । यस्या महिम्ना वदतां वरेण्य-भावं भजन्ते पुरुषा विवर्णाः ॥३॥ इन्द्रवज्रा० सितपतत्त्रिविहङ्गमपत्रका, दनुजमानुजदेवकृतानतिः । भगवती परब्रह्ममहानिधिः, वदनपङ्कजमेव पुनातु मे ॥४॥ द्रुत० विविधभूषणवस्त्र-समावृतां, नवरसामृतकाव्यसरस्वतीम्। बहुजनान् ददती प्रतिभां मुहः, प्रमुदितः प्रतिनीमि सरस्वतीम् ॥५।। द्रुत० ऐंकाररुपे ! त्रिपुरे ! समाये !, ह्रींकारवर्णाङ्कितबीजरुपे !। निशासु शेते (डवसाने) चरणारविन्दं, भजे सदा भक्तिभरेण देवि ! ॥६॥ उप० त्वदध्यानत: संस्मरणात् प्रकामं, भवन्ति ते स्वर्भुवि कीर्तिपात्रम्। विद्याचणा दैहिककीर्तिभाजो, यथा हि दृष्टा: कवि कालिदासा: ॥७॥ उप० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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