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________________ ४० ॥ श्री सरस्वती स्तुत्याष्टकम् ॥ अनुष्टुप. दिव्यां श्री शारदां वन्दे श्रुतदेवीं सरस्वतीम् । गां वागीश्वरीं वाणीं कुमारी हंसगामिनीम् 'भारतं भारती भाषां ब्रह्माण ब्रह्मचारिणीम् । त्रिपुरां प्राज्ञजननीं ब्राह्मणीं ब्रह्मचारिणीम् षोडशैतानि नामानि संस्मृत्य सिद्धिमाप्नुते । प्राणी प्रणयवान् नित्यं शान्तिं सुखं समश्नुते तस्मै देवेन्द्रदिक्पालब्रह्माविष्णुशिवार्चिताम् । हंसयानसमारुढां श्वेतवस्त्रावृतां सदा पद्मासने स्थितां हस्ते धृतस्फटिकमालिकाम् । सुबुद्धिदामभयदामाद्यां संसारव्यापिनीम् कुन्देन्दुहारसदृशीं धृतवीणाब्जपुस्तिकाम् । जाड्यान्धकारसंहन्त्री शारदां परमेश्वरीम् स्तीति नीति सुशीलाय सायं प्रातर्दिवानिशम् । तस्मै देवी प्रसन्नात्मा सर्वाभीष्टं प्रयच्छति तस्मादेवाष्टकं कृत्वा नित्यं ध्यानपरायणः । सर्वदा वन्दते सूरिः सुशीलो जिनभारतीम् । समाप्तम् । ४० भाषान्तर : 11811 Jain Education International ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ዘረዘ અલૌકિક શ્રી શારદાસ્વરૂપા, શ્લોકરૂપા, સુંદર વાણીની स्वामिनी, पाली३पा, डुमारी, हंस उपर ४नारी ( पाहनपाणी) એવી શ્રી શ્રુતદેવી સરસ્વતીને હું વંદન કરૂં છું. ભારતિ (કાન્તિ તેજની રતિવાળી) વાણીના પ્રવાહ સ્વરૂપ, (भारती) भाषा, ब्रह्माशी, ब्रह्मचारिणी, त्रिपुरा, प्राज्ञननी, બાહ્મિણી અને બ્રહ્મચારિણી. ૨ આ સૉળ નામોને નીતિવાળો મનુષ્ય સ્મરણ (સારી રીતે)કરીને સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરે છે સુખશાંતિને સારી રીતે ભોગવે छे. 3 तेने माटे हे वेन्द्रो - हिड्यातो ब्रह्मा-विष्णु-महेशथी પૂજાયેલી, હંસના વાહન ઉપર સારી રીતે બિરાજેલી, હંમેશા ચૈત વસ્ત્રોથી વીંટળાયેલી, પદ્માસનમાં બેઠેલી, હાથમાં સ્ફટિકમાલાને ધારણ કરેલી, સુબુદ્ધિને આપનારી, અભયને આપનારી, પ્રથમ स्वरुपा, संसारमां इलायेली, मुँह यन्द्रमांना हार सरणी, पीएला - કમળ અને પુસ્તિકાને ધારણકરેલી, જડતારૂપી અંધકારને અત્યંત રીતે હણનારી, એવી શારદા પરમેશ્વરીને સુંદર શીલવાન, બનવા માટે સવાર-બપોર-દિવસ-રાત્રે સ્નતિ કરે છે. પ્રશંસા કરે છે. તેની માટે પ્રસન્ન આત્મારૂપ દેવી સર્વે મનવાંછિતને આપે છે. हमेशा ध्यानपराया थयेला (इर्ता ) थी (हेवीथी) ४ अष्टने કરીને સર્વકાલ સુશીલ સુરિ ર્જિન ભારતીને વંદન કરે છે. (४थी ८) - संपूर्ण : ४० अनुवाद अलौकिक श्री शारदास्वरूपा, लोकरूपा, सुन्दर वाणी की स्वामिनी, वाणीरूपा, कुमारी, हंस वाहिनी हंस पर जानेवाली, श्री श्रुतदेवी को मैं वन्दन करता हूँ । १ भारत (कांति - तेज में रतिवाली), वाणी के प्रवाह स्वरूप ( भारती) भाषा, ब्रह्माणी, ब्रह्मचारिणी, त्रिपुरा, प्राज्ञजननी, ब्राह्मणी और ब्रह्मचारिणी.. इन सोलह नामों को नीतिवाला मनुष्य (भलीभाँति ) स्मरण करके सिद्धि प्राप्त करता है, और सदा भलीभाँति सुख शांति का अनुभव करता है। ३ उसके लिए देवेन्द्र दिक्पाल ब्रह्मा-विष्णु-महेश के द्वारा पूजित, हंस के वाहन पर सुष्ठु ( रीति से) विराजमान, हंमेशा श्वेत वस्त्रों से वेष्टित, पद्मासन में बैठी हुई, हाथ में स्फटिकमाला धारण की हुई, सुबुद्धि की देनेवाली, अभय देनेवाली, प्रथम स्वरूपा, संसार में व्याप्त, कुन्द, चन्द्र के हार के समान, वीणा - कमल और पुस्तिका धारण की हुई, जड़तारूपी अन्धकार का अत्यन्त प्रकार से हनन करनेवाली ऐसी शारदा परमेश्वरी की सुन्दर शीलवान बनने के लिए सुबह दोपहर ( प्रातः मध्याह्न, दिन-रात ) स्तुति करते हैं, प्रशंसा करते हैं, उस के लिए प्रसन्न आत्मारूप देवी सर्व मनोवांछित प्रदान करती है। हमेशा ध्यानपरायण बना हुआ (कर्ता) उस (देवी) से ही अष्टक बना कर सर्वकाल सुशील सूरि जिन भारती को वन्दन (४ से ८) " 2 करता है। १०० For Private & Personal Use Only - सम्पूर्णम् - www.jainelibrary.org
SR No.004932
Book TitleSachitra Saraswati Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay
PublisherSuparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
Publication Year1999
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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