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अपरिचित रही।
झूलते हुए चंचल तारको का भ्रम पैदा करनेवाले मोतियों से मंडित तुम्हारे दो स्वर्ण-मय कुंडल ऐसे मालूम होते हैं मानों प्रभा के भार से हारे हुए निर्मल कांतिवाले सूर्य एवं चन्द्र डोल रहे हो। ४४.
तुम्हारे भाल-स्थल रूपी निर्मलचंद्र के, राहु द्वारा ग्रसित अर्धबिंब पर कामदेव के सुसज्जित धनुष्य जैसी तुम्हारी दोनो भौ है शोभती हैं। समस्त विश्व पर जय पानेवाली महासिद्धि जो विस्मय के स्थानभूत है सो कामदेव को भी प्राप्त हुई।
तेरी कान्ति के कलाप से पराजित मयूर के कला-कलापने तेरे केशपाश के कलाप से स्पर्धा की, ऐसा होते हुए भी, तेरे केशो में गुंथे हुए फूल पूजे गये अथवा हाथ से बनाया गया अर्धचन्द्र अत्यन्त अनादर के साथ दिया गया।
स्वगंगा की तरंगो में डोलते हुए कमलो की लीला में आसक्त, तुम्हारी शक्ति सर्वदा स्वतंत्र रही है। अर्थालंकार के साथ नये नये महान शास्त्रो की रचनाओं में कवियों के पराधीन भले हो, फिर भी किसी के अधिकार में नहीं रहती।
बडी बडी चट्टाने, पर्वत पर्वत पर ब्रह्मांड के उदर को भर डाले वैसे जोर से अपनी भारी वाणी से भले चिल्लाओ परन्तु तुम्हारी वाणी के पद-लालित्य से विलसने वाला, नूतन सुधा के सागर की लहरो से व्याप्त वैदग्ध्य तो कुछ निराला ही है।
हे जगज्जननी ! तू ही मेरी माता है, तू ही पिता है । तू ही मेरी परम मित्र है। तू ही मेरी सर्वाधिक सखा है। तू ही भाई और बहन है। श्रेष्ठ बन्ध भी तू ही है। तू ही मेरा यश-कीर्ति एवं लक्ष्मी है। परम तम अपरा विद्या भी तू ही है। तू ही अद्वैतब्रह्म के रूप में मेरे चित्त में नित्य वास करती है।
तुम्हारे मस्तक पर के बाल लावण्यरुपी सरोवर के जल का मानो जंबाल (कीचड़) न हो ? अथवा मानों कामदेव की तलवार न हो ? चमरी गाय अपनी पूँछ के निचले हिस्से से अपने चँवर के बालो से ही उत्पन्न है, ऐसा केशपाश से कहे तो पंडित लोग उसके साथ तुलना थोडे ही करेंगे?
४७.
मनुष्यलोक में तथा लोकान्त में हे ध्वनि की जननी ! तृ भाषात्मक रुप में, और स्वर्ग के विमानो के स्फुट मुकुट के माणिक्यमणियों से, एवं सूर्य से रमणीय आकाश को अपने अणुओ के द्वारा, इस तरह दिव्य मणियों की भाँति सारे विश्व में तू व्याप्त है।
हे जगन्माता ! प्रातःकाल के उगते सूर्यकी किरणो के समान अरुण अंगोवाली ! तुम्हें-जो आनंगी (कामबीज) सुभगा आदि के साथ जपता है सो दृष्टि-मात्र से कामदेव रुपी शरभ प्राणी से क्षुब्ध दृष्टि वाली अप्सराओं का साक्षात् वशीकरण करनेवाला हो जाता
तुम्हारे बालों में बंधे हुए नूतन मणि-लतिका के फूलो से मिश्र कांतिवाली वेणी चितकबरी हो गई। पुष्पशर अनंग की सेनाका अंधकार मानों शीघ्रता से तुम्हारे नूतन मुख रूपी चंद्र के उदय के कारण वेणी में विलीन हो गया, ऐसा मुझे शक हैं। ४८.
__ मैं असंदिग्घ कल्पना करता हूँ कि तुम्हारी जो माँग है सो मानों केश-समूह की कांति के प्रवाहके बहने के लिए मार्ग न हो अथवा वसंत एवं रति का सखा अनंग, जगत को जीतने के लिए तुम्हारे बालो के पुष्प-वन में मानो मार्ग न बनाता हो? ४९.
तुम्हारे शरीर के भीतर कांति का जो समूह है सो नवें निधियों का प्रतिनिधि है। तुम्हारी दोनो भौहे नील नामक निधि है। तुम्हारा शंख (कंठ) सो शंखनिधि है। मुख और हाथ महापद्म एवं पद्य हैं। नयन-युगल सो मकर है। मुकुंद और कुंद तुम्हारे दांतों की पंक्ति है, एवं तुम्हारे पैर कमठ (कच्छप) नामक (निधि) है। ५०
गदा के प्रहार से वैरियों के मन में भय पैदा करनेवाली तीनों भुवनो में जो द्वेषी लोग हैं उन्हें त्रिशूल पिरो देनेवाली है, मेरे मन में परम आनन्द स्वरूप बनकर मेरे अर्धनिमिलित नेत्रो मे अमृतसम बनकर हे जननी !... तुम्हारा रूप विलसे।
___ किसी भी प्रकार से, किन्हीं कवियाँ द्वारा कवित्व एवं वक्तृत्व में अनुभूत, हे भगवति ! कतिपय महानुभावो ने तुम्हें कमलवासिनीरुप में देखा, किन्तु हम जैसो से अपरिचित चिदानन्द लहरी के आलिंगन से वेष्टित तुम श्रवण-मार्ग से दूर रही एवं
तू ही परा नामक विद्या है। समस्त भुवन में व्याप्त होने के कारण तू ही चिति-शक्ति है एवं परम आनंद के स्पंदनरुप अमृतरस के सागरकी तरंग के समान तू सदा आनंदमयी परम ब्रह्म-विद्या के रूप में जगत में विजयवती है।
हे माँ ! स्मित की उज्ज्वल प्रभा से नित्य छाया हुआ तुम्हारा वदन कमल अपूर्व रमणीय है। मानों सूर्य एवं चन्द्र की कान्ति को भी घुघला कर दिया है और चिदानन्द की सुगंधवाला जो स्वानुभवरूपी मकरंद है उसी में एक मात्र रसिक मेरा नेत्रयुगल भ्रमर की भाँति तुम्हारे ही वदन-कमल में क्रीडा करे।
कलाओ के पारगामी कविजनो मे मूर्धन्य राजाओ के लिए सदा मान्य, गुणगण निधि के मणि समान, ऐसे कोई धन्यपुरुष ही सब लोगोके लिए शृंगार की लहर के समान धान्य से स्फुरायमान कांति एवं रुपवाली, पृथ्वी के समान तुम्हारी काया का स्मरण करते
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