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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ करणी युक्त नही । क्योंकि, श्रुतदेवीकों कर्म क्षपनेमे असमर्थ होने सें । अत्र आचार्य उत्तर देते है। हे वादी ! जैसें तैने कहा है तैसें नही है; क्योंकि, श्रुताधिष्ठातृ देवता गोचर शुभ प्रणिधानभी स्मरण कर्ताकों कर्मक्षयका हेतु है, ऐसें शास्त्रमें कहनेसें जिस वास्ते कहा है। श्रुतदेवता जिसका स्मरण करना कर्मका क्षय करनेवाला कहा है, सो श्रुतदेवता नही है । अथवा है, तो भी कार्य करनेवाली नही है, ऐसे कहना तिस श्रुतदेवीकी आशातना है । क्योंकि, इहां येही श्रुत अधिष्ठातृ देवीकाही व्याख्यान करना उचित है । जिनोंकी निरंतर श्रुतसागरमें भक्ति है, तिनोंके श्रुत अधिष्ठातृ देवता ज्ञानावरणीय कर्म संघातकों, क्षय करो; ऐसेही वाक्यार्थकी उपपत्ति होनेसे,
और व्याख्यानांतर विषे श्रुतरुप देवता श्रुत भक्तिवालोंके कर्म क्षय करो, यह व्याख्यान सम्यक्ताको नही प्राप्त होता है। क्योंकि, श्रुत स्तुति तो पहिले बहुत बार कह चूके है । इस हेतुसें तिस वास्ते यह पक्ष स्थित हूआ के, अर्हत् के पक्ष करनेवाली श्रुतदेवता इहां ग्रहण करीये है; ऐसे व्याख्यानमें दिखलाया है।
(६०) अब सुबोध पुरुषोंकों टीकाकां लेखके विचार करना चाहिये कि, जो इस धनविजयने टीकाकी भाषा करी है, सो, नि:केवल असमंजस, पूर्वापर विरोध वाली टीकाके अक्षरार्थोसें विरुद्ध स्वकपोल कल्पित होनेसें धनविजयकी मूढता, और जैनशास्त्र शैलीकी अनभिज्ञताकी सूचक है, या नही ? जब इस धनविजयको सुगम टीकाका भावार्थ यथार्थ नही मालूम हुआ है, तो पंचांगी महा गंभीर अर्थ वालीको समझ तो इसको कहांसे होनी चाहिये ? इस वास्ते इस पोथी थोथीमें जितने पाठ पंचांगी लिखे है, वे सर्व अंधी भैसकी तरे विना विचारे लिखे है। और इस धनविजयकें प्रायः शुद्धाशुद्धकाभी बोध नही है, क्योंकि, तन्न शब्दकी जगे इसने पक्षी सूत्रकी टीकामें तत्र शब्द लिखा है। यह तत्र शब्द छापनेवालेकी
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