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________________ ३६८ श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ श्रुतमेवातिगंभीरतया अतिशयरत्नप्रचुरतया सागरः समुद्रः श्रुतसागरः तस्मिन् भक्ति बहुमानो विनयश्च समस्तीति गम्यते ननु श्रुतरुप देवतायाः उक्तरुप विज्ञापना युक्तायुक्ता श्रुतभक्तेः कर्मक्षय कारणत्वेन सुप्रतीतत्वात् श्रुताधिष्ठातृ देवतायास्तु व्यंतरादि प्रकारायानयुक्ताः तस्याः पर कर्मक्षपणे समर्थत्वादिति तन्न श्रुताधिष्ठात्रा देवतागोचर शुभप्रणिधानस्यापि स्मर्तुः कर्मक्षयहेतुत्वेनाभिहितत्वात् तदुक्तं सुयदेवयाए जीए संभरणं कम्मक्खयकरं भणिय नत्थित्ति अकज्जकरीव एवमासायणातीए किंचेहेद मेव व्यख्यानकर्तुमुचितं येषां सततं श्रुतसागरे भक्तिस्तेषां श्रुत्ताधिष्ठातृ देवता ज्ञानावरणीय कर्म संघातं क्षययित्विति वाक्यार्थोपपत्तेः व्याख्यानांतरेतु श्रुतरुपदेवता श्रुतेभक्तिमतां कर्मक्षपयत्विति सम्यग् नोपपद्यते श्रुतस्तुतेः प्रागबहुशोऽभिहितत्वाच्चेति तस्मात् प्रस्थितमिदमहत्पाक्षिकी श्रुतदेवतेह गृह्यत इति (५९) ॥ अस्य भाषा ॥ अब प्रारंभित सूत्रकी समाप्तिमें श्रुतदेवताकों बिनती करते है ।। श्रुत अर्हत् प्रवचन, तिसकी जो अधिष्ठाता देवी, सो श्रुतदेवी, श्रुतअधिष्ठातृ देवी होने का संभव है । जिस वास्ते कहा है, कल्पभाष्यमें । जो वस्तु लक्षण युक्त है, तिन सर्वके देवता अधिष्ठाते होते है। और सर्वज्ञ भाषित सूत्र सर्व लक्षणों करके संयुक्त है, इस वास्ते इनका अधिष्ठातृ देवता है । भगवती, पूजने योग्य ज्ञानवरणीय कर्मका संघात, ज्ञानकी आशानता करनेसें उत्पन्न हुआ कर्म समूह । तिन प्राणियोंके कर्मकों क्षय करो। जिन प्राणीयोंकी निरंतर क्या, सो, कहते है श्रुतहि अति गंभीर होने करके, और अतिशयरुप रत्न बहुत होने करके, सागर समुद्र श्रुतसागर, तिस विषे भक्ति बहुमान, और विनय है जिनके इहां वादी प्रश्न करता है, श्रुतरुपकों विज्ञापना करनी युक्त है, क्योंकि, श्रुत भक्तिकों कर्मक्षय हेतु शास्त्रमें कहनेसें और श्रुत अधिष्ठातृ देवता व्यंतरादि प्रकारकों विज्ञापना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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