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________________ ३६६ श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - २ करवी युक्त नथी, केम के तेनुं तो परनां कर्मक्षय करवामां असमर्थपणुं, तेथी त्यां कहे छेके, स्मरण करताने श्रुताधिष्टाता देवता विषे शुभ प्रणिधान छें ते पण कर्मक्षय करीने कह्या छे, तेज कहे छे श्रुतदेवता जे तेहनुं संभारवुं एटले याद कर कहे तो कर्मक्षयकारक कह्युं, पण ए कोइ करनार नथी, एम कहे तो तेनी आशातना कही तथा इहां एज व्याख्यान करवुं उचित छे जे निरंतर श्रुत समुद्रने विषे भक्तिवंत तेमनां श्रुत अधिष्टायिका देवता ज्ञानावरणीय कर्म समूहने क्षय करो ए वाक्यार्थ थाय छे । व्याख्यानांतरमां श्रुतरुप देवता ते श्रुतने विषे भक्तिवंतोना कर्मनो नाश करो, ए अर्थ तो रुडो प्रतिपादन थतो नथी, केमके श्रुतनी स्तुति विषे तो पूर्वे बहु प्रकारे कह्यो, ते कारण माटे एम सिद्ध थयुं के अरिहंत पाक्षिक श्रुतदेवता ते इहां ग्रहण करवा ॥ इहां टीकाकारे प्रश्नकारकने कह्युं के तमे श्रुतभक्ति कर्मक्षय कारणपणे करीने श्रुतरुप देवता एवो व्याख्यानांतर मानशो तो श्रुतने विषे भक्तिवंतोना कर्म खपावो, ए अर्थनी सम्यक् उत्पत्ति न थाय । केमके श्रुत स्तुति पूर्वे बहु करी छे. माटे अर्हत्पाक्षिकी श्रुतदेवता ग्रहण करवी एटले अर्हत्पक्षथी प्राप्त थइ एवी जिनवाणी रुप श्रुताधिष्टाता एटले श्रुतव्यापक देवता इहां ग्रहण करवी, केमके श्रुत ते अर्हत् प्रवचन तेने विषे अधिष्ठातृ एटले व्यापक तेने श्रुताधिष्ठात्री देवता कहीए ।" यह उपर लिखा इसकी अज्ञताका सूचक है । (५८) अब पाक्षिक सूत्रकी टीका और तिसकी भाषा यथार्थ लिख जाती है ॥ तत्पाठः ॥ “सुयगाहा ॥ श्रुतमर्हत्प्रवचनं श्रुताधिष्ठातृ देवता श्रुतदेवता संभवति च श्रुताधिष्टातृ देवता यदुकं कल्पभाष्ये ॥ सव्वं च लक्खणो वेयं समहद्वंति देवता सुत्तं च लक्खणो वेयं जेण सव्वण्णु भासियंति । भगवती पूज्यतमा ज्ञानावरणीय कर्म्म संघातं ज्ञानध्र कर्म्म निवहं । तेषां प्राणिनां क्षपतु क्षयं नयतु सततमनवरतं येषां किमित्याह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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