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________________ ३३६ श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ तथा रात्रि प्रतिक्रमणके अंतमेंभी च्यार थुइकी ही चैत्यवंदना करनी लिखी है, सो पाठ नीचे मूजब है, __"विसाल चैत्यवंदन कही शकस्तव भाखई उभा थइने चार थोइ देववंदन दाखइं बेंसी नमुत्थुणं कही खमासमणां देइं कृत पोषध जे श्राद्ध तथा मुनिवर जे होइं १३" इत्यादि इस विधिको क्यों नही मानते हो? क्या श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्याय, श्री मानविजयजी उपाध्याय और श्री ज्ञानविमलसूरिजी तुमारेसे न्यून पठित थे ? वा कदाग्रही थे ? तिस वास्ते उनोंका कथन तुम नही मानते हो ? अहो तपगच्छादि सर्व सुविहित गच्छोंके विरोधी ! क्या जाने तुमारा इस कदाग्रहसें क्या हाल होगा ? अब भी इस कुमतकों छोडके त्यागी किसी संवेगी पास प्रायश्चित लेके शुद्ध गुरु धारण करो, जिससे तुमारा संसार भ्रमण मिट जावे । हमने तो यह हितशिक्षा करुणा ल्याके लिखी है। परंतु टिट्टीरीकी तरे उंची टांगें करके जिनोंका आकाश थाभनका अभिमान है, वे तो कदापि नहीं मानेंगे। (४४) पृष्ट ४७९ से लेके पृष्ट ५३४ तक जो इसने स्वकपोल कल्पनाका झूठा लेख लिखा है सो तो उसकी झूठ लिखनेकी प्रकृति ही है। पृष्ट ५३५ सें लेके पृष्ट ५५२ तक श्री उत्तराध्ययन मूल १ उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति २ उत्तराध्ययन लघुवृत्ति ३ उत्तराध्ययन अन्यवृत्ति ४ उत्तराध्ययनावचूरि ५ आवश्यक नियुक्ति ६ आवश्यक बृहद्वृत्ति ७ इतने शास्त्रानुसार दैवसिक प्रतिक्रमणकी विधि लिखके श्रीधनविजयजी लिखता है कि, इन विधियोंमें प्रतिक्रमणकी आदिमें च्यार थुइको चैत्यवंदना, और श्रुतदेवी क्षेत्रदेवीका कायोत्सर्ग करना कहा नही है, ऐसें लिखके विवेक रहित अपठित जीवोंकों च्यार थुइकी चैत्यवंदनाका निषेध धूर्ततासें करता होगा, परंतु हम तो इसकों इतनाही पूछते है कि, इन पूर्वोक्त दैवसिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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