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________________ ३३४ श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ यह पद मतांध होके नवीन प्रक्षेप करा होवेगा, इस वास्ते इनोंकों जिनेंद्र वाणीके छेद भेद न्यूनाधिक करनेका डर नही है; इस सबबसे येह जैनमतके और चतुर्विध संघके विरोधी सिद्ध होते है । (४३) पृष्ट ४७४ श्री ज्ञानविमलसूरि कृत ग्रंथकी साक्षी दीनी है । तिस्से तो इनकी कल्पना किंचित् मात्र भी सिद्ध नही होती है। परंतु तुम श्रीज्ञानविमलसूरिजीके लेखको सत्य मानते हो, सो श्री ज्ञानविमलसूरिजी तपगच्छमें उपाध्याय श्री यशोविजयजी गणि, और धर्मसंग्रहके कर्त्ता उपाध्याय श्री मानविजयजीके समयमें उनोंके साथ ही हुए है; तिन श्री ज्ञानविमलसूरिजीने दैवसिक राइ प्रतिक्रमणेकी विधि लिखी है, सो नीचे लिखे प्रमाणे है "सुगुरु गणधर पाय प्रणमेव विधि पभणं पडिक्कमणनी भविक जीव उपगार काजे षट आवश्यक नितु प्रति करो जेम भव दुःख भांजे भुमि प्रमार्जि मुहपती थापना चरवलो लेइ मन थीर करीने आपणुं खमासमण धुरिदेइं १ ढाल ॥ वीर जिणेसर चरण कमल ए देशी ॥ प्रथम इरिया पडिक्कमी मुहपति पडिलेही सामायक संदिसावुं ठाउं खमासमण दुग देइ गुरु मुखे सामायक ग्रहें कही एक नोकार तदनंतर चउत्थोभंदई कहे त्रिण्य नोकार २ सामायक लेवा तणो विधि इंणिपरें पुरइं पच्चखाण करवो तिहां वेला जाणी असुर पडिलेहे पुण मुहपती दोइ वंदन देवें दूति चउविह पचखाण तेम यथा सकति लेवें ३ चैत्यवंदण नमुत्थुणं कहि चैत्यस्तव पभणे मंगल एकैक काउसग्ग करी थुइ निसुणई काउसग करें च्यार च्यार थुइ देवज वांदे बेसी शकस्तव कही निज पाप निकंदे ४ च्यार खमासमणां दीइं भगवन् आचारज उपाध्याय वर साधु जेह वंदे गुण संयुत्त " इत्यादि उपर लिखी हूइ विधिमें दैवसिक प्रतिक्रमणकी आदिमें च्यार थुइकी चैत्यवंदना करनी लिखी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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