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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ यह लेख इस श्रीधनविजयजीका महा मिथ्या है; क्यों कि, श्री भगवंतके सिद्धांतमें एकांत वस्त्र रंगने का निषेध नही है। कारणके वास्ते एक मैथुन वर्ण्यके किसी भी वस्तुके करणेका निषेध नही है । यह कथन श्री निशीथ भाष्यमें है। इस वास्ते उपाध्याय श्रीमद्यशोविजयजीने तथा गणि सत्यविजयजीने किसी कारणके वास्ते वस्त्र रंगे है, तबसे लेके तपगच्छके साधु वस्त्र रंगके ओढते है। परंतु कोइ भी प्रामाणिक साधु यह नही मानते है कि, श्री महावीर स्वामी के शासनमें रंगेके ही वस्त्र साधु रख्खे और मैरी भी यही श्रद्धा है। अब तो श्री सर्व संघ तपगच्छ खरतर गच्छमें यह रीति सम्मत है। श्रीआत्माराम आनंदविजयीने ही ये रंगे वस्त्र रखनेकी परंपराय नही चलाइ. इस वास्ते एकले श्रीआत्माराम आनंदविजयहीकी जो श्रीधनविजयजी जैनलिगंका विरोधी लिखता है, यह लेख इसकों इर्षावर्त्त मत्सरी अन्यायी अज्ञानी मृषावादी सूचन करता है । क्यों कि, श्रीमद्यशोविजयोपाध्याजीसे लेकर आज तांइ जितने साधु हो गये है, तिन सर्वका निंदक श्रीधनविजयजी सिद्ध होता है । तथा श्री नेमसागरजीरविसागरजी सरीखे त्यागी वैरागी मुनियोंको भी ये निंदक जैनलिंगके विरोधी लिखता है, परं इतना तो इसको पूछना चाहिये कि, तेरे गुरु राजेंद्रसूरिने संवत् १९२५ में कुमति मतका उद्धार करा है, तिससे पहिले रंगे हुए वस्त्रोंके बिना कौनसा साधु संयमी था ? तिसका नाम तो बतला दे ? तेरे गुरु दादा गुरु आदि तो सर्व अनाचारी असंयमी षट्कायके हिंसक थे; बिना त्यागी गुरु पासें दीक्षा लीया अब भी तैरा गुरु वैसा ही है। इस वास्ते श्रीधनविजयजी श्री संघका निंदक होनेसें दुर्लभबोधी है,
तथा उत्तराध्यनका जो लेख इसने लिखा है, सो लेख भी इस श्रीधनविजयजीको महा मिथ्यादृष्टी उत्सूत्रभाषी मृषावादी जैनशास्त्रका अनभिज्ञ अक्षरबोध रहित अभिनिवेशिक मिथ्यादृष्टीपणेका सूचक है क्यों
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