SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९२ श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ पुस्तक रचा है । अहो भव्य जीवो ! इस धनविजयकी घूर्तता छल कपट दंभता तो देखो ! प्रथम तो इसने अपने मतके श्रावकांकों यह जनाया है कि, मैं बडा मंत्रवादी हुं १, लोक जानेगें वह बडे सिद्ध मंत्र वाले है २, इनके पास ऐसा कोइ भी मंत्र नही है किंतु कपटसें लोकोमें सिद्ध बन बैठा है ३, अपनी सिद्धाइ दिखा के लोकांकों डराता है ४, परंतु अपने मनमें यह नही समझता है कि, मैने पूर्व जन्मोंमें जिनराजके धर्मकी आशातना करके महामिथ्यात्व उपार्जन करा है तिसके उदयसें मेरी बुद्धि विपर्यय हो रही है, इस्में वर्तमानमें वर्त्त रहे संघकी निंदा करता हूं और अतीतकालमें हो गये हजारों आचार्योपाध्यायोंकी और लाक्खो साधुयोंकी निंदा करके दुर्लभबोधि होनेका बीजबोय रहा हुं । इस्से क्या जाने मैरी कैसी भुंडी गति होवेगी? पृष्ट १४० में छानवे ९६ थुइ श्रीबप्पभट्टिसूरिकृत और छानवे थुइ श्री शोभनमुनिकृतके वास्ते श्रीधनविजयजीने जो क्लपना करी है, सो महामिथ्या है । क्यों कि ऐसी कल्पना किसी भी जैनशास्त्रमें नही है तो इस श्रीधनविजयजीने असत्य लिखनेके फलकों भूलके मिथ्यात्वके उदयसें नि:केवल झूठ ही इस पोथीमें लिख दीया है। इसका फल तो यही बिचारा अनाथ भोगेगा. और शोभनमुनि श्री जिनेश्वरसूरिकें शिष्य थे । ऐसा पाठ आत्म प्रबोधमें लिखा है. तथा च तत्पाठः ॥ तदा शोभनेनोचे भो तात ! अहं दीक्षां ग्रहीष्यामि त्वमनृणी भव चेतसि परमानंदं धारय एतत्सुतवचो निशम्य सर्वधरविप्रो देवलोकं गतस्ततो मृतक्रियां कृत्वा शोभनेन श्रीवर्द्धमानसूरिशिष्य श्रीजिनेश्वरसूरिगुरुणां पार्श्वे दीक्षां गृहिता ॥ __ऐसा स्पष्ट लेख है तो भी श्रीधनविजयजी लिखता है कि "चतुर्थस्तुतिनिर्णय पृष्ट १७३ मां श्रीजिनेश्वरसूरिजीका शिष्य नवांगवृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजीका गुरुभाइ ॥ ए लखवू पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy