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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - २
इनकों सूरि पदवी दीनी. प्रथम तो श्रीप्रमोदविजयजी असंयमी अव्रती षट्कायका हिंसक अनाचारी था, तुमारे लेख मूजब उसकों आचार्य पदवी देनेका अधिकार नही था. क्यों कि, श्रीधनविजयजी पृष्ट ५६ में लिखता है कि, कोइ संयमी आचार्य और संघके विना दीयां आचार्यपद नही होता है। तो हम पूछते है कि इस तेरे गुरुकों किस संयमी आचार्यने आचार्य पद दीना है ? इस तेरे लेख मूजब तुं और तेरा गुरु दोनो ही नरक निगोद रुप कारागारमें पडनेकी इच्छा करते हो । तथा श्रीविजय धरणेंद्रसूरिजीने तेरे गुरुकों आचार्य पदकी अनुमति दीनी । प्रथम तो यह लिखना ही झूठ है क्यों कि, श्रीविजय धरणेंद्रसूरिजीका कोइ भी आदेशी यति नही कहता है कि, श्री पूज्यजीकी अनुमतिसें ही इसने आचार्यपद धारण करा है । दूसरी यह बात है कि श्रीपूज्यजीने श्रीरतनविजयजी समान सुरुप सुंदर अन्य कोइ पुरुष नही देखा होवेगा । क्यों कि, तेरे गुरुका रुप तो मारवाडकी पदमनी स्त्री समान बहुत ही आश्चर्यकारी है। नंदी सूत्रकी टीकामें लिखा है कि जो अपात्रको आचार्य पदवी जानके देवे तो महापापी है; सो तो श्रीप्रमोदविजयजीने पंचाश्रव सेवी छत्र चामर छडीवदार पालखी घोडे ऊंटादि रखनेवाले तेरे गुरुकों आचार्यपद दीना, इस वास्ते बिचारा श्रीप्रमोदविजयजी तो जिनाज्ञा भंग करके नरक निगोदका अतिथि हूआ होवेगा | यह तेरे अनाचारी गुरुको आचार्यपद देनेका श्रीप्रमोदविजयजीने फल पाया । और पदवी देनेवाले संघको भी तेरे दादा गुरुवाला ही फल होवेगा ।
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( १२ ) और पालीताणे बाबत जो हकीकत हमने लिखि है सो सत्य सत्य लिखि हैं, तिसको बांचके तेरे पेटमें क्यों शूल उठता है ? तथा पृष्ट १४ में श्रीधनविजयजी लिखता है कि "राजेंद्रसूरिजीए कह्युं के अमो तो हमारा साधुओने पण कागल पत्र गृहस्थीने हाथे लखवा लखाववा, तथा
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