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________________ २३२ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ है. तो फेर यह ग्रंथो सब पूर्वाचार्योके रचे हुए हैं सो किसी प्रकारसें जूठा नही हो शक्ता है, परंतु हमने सुना है कि श्रीरत्नविजयजी अरु श्रीधनविजयजीने “सम्मद्दिठी देवा" इस पदकी जगें कोइ अन्यपदका प्रक्षेप करा है, जेकर यह कहेनेवालेका कथन सत्य होवे तबतो इन दोनोकों उत्सूत्र पुरुपण करणेका और संसारकी वृद्धि होने का भय नही रहा है, यह बात सिद्ध होती है तो अब सज्जनोकों यह विचार रखना चाहीयेंके सूत्रोंका पदोकों फिरायके तिस जगे दूसरे वाक्य लिखना यह काम करणेसे जो पाप लगे तिस्से जास्ति पाप फेर दूसरे कौनसे काम करनेसे लगता होवेगा? यह काम करणमें कोइभी भवभीरु पुरुष आपनी सम्मतितो नहीही देवेगा, परंतु खरा अंतःकरणपूर्वक पश्चात्ताप करके इन दोनोकों इस कामसे दूर रहेने वास्ते अवश्य सत्य उपदेश करणेमें क्योंकर तत्पर न रहेगा ! अपितु अवश्य रहेगाही. श्रीजिनेश्वर भगवानके वचन उत्थापन करना यह कुछ सहेज बात नही है, इस्से वो उत्थापक जीव अनंत संसारी बन जाता है, तो फेर जिसके हाथमें सब दर्शनोमें शिरोमणीभूत श्रीजैनधर्मरुप चिंतामणी रत्न प्राप्त हूवा तिस्कों वो अपने दुराग्रहके अधीन होके दूर फेक देता है, अरु अपनी मनकल्पितरुप विष्टाको उठाकें हाथमें धारण करता है तिस्कों देखके कोन भव्यजीवकों तिस पामर जीवके पर दयाका अंकूरा उत्पन्न नहीं होवेगा? अर्थात् निकट भव्यसिद्धियोंकों तो आवश्य करुणा आवेगीही. जब तिसके परकरुणा आवेगी तब वो प्रतिबोधभी अवश्य देवेगा, क्योंकी जेकर कोइ दुराग्रही जो बुज जावे तो उसका काम हो जावे, अरु बोध करनेवालेकुंभी बडा पुण्योपार्जन रुप लाभ हो जावे ऐसा भगवानका कथन है. हमकों बड़ा आश्चर्य होता है कि पाटण खंभातादिक शहेरोमें बडे बडे ज्ञानके भांडागारोंमें ताडपत्रोंके उपर पुराणी लिपियोंमे लिखे हूए ग्रंथ मोजुद है, तिन सब ग्रंथोंमें 'सम्मद्दिठी देवा' यह पद लिखा हुआ है. तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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