SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९४ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - १ चकार समुच्चयार्थमें है. तथा जो आगमिक कालमें मनवंछित फलकी सिद्धि करे सो सौभाग्य कल्पवृक्ष तप जानना. इस उक्त तपसें अरु अन्य प्रकारके तपसें क्या फल होवे सो बतलाते है. कहे है जो तपके भेद विशेष अन्य ग्रंथकार आचार्योंने तिन तिन नाना प्रकारके ग्रंथोमें इत्यर्थः ॥ इहां वादी प्रश्न करता है कि यह तुमारा तप वांछासहित होनेसें मुक्तिका मार्गमें नही होता है. इसका उत्तर कहते है. यह पूर्वोक्त वांछा सहित तप जो है सो मोक्ष मार्गकी प्राप्ति होनेमें कारण है, जो मोक्षमार्गकी प्रतिपत्तिका हेतु है. सो मोक्षमार्ग ही उपचारसें है. पूर्वपक्ष:- यह पूर्वोक्त तपसें कैसें मोक्षमार्ग हो सक्ता है ? उत्तर :- शिक्षणीय जीवके अनुरूप होने करके हो शक्ता है. क्योंकि कितनेक शिष्य प्रथम वांछासहित अनुष्ठानमें प्रवृत्त हूए होए "निरभिष्वंग " अर्थात् वांछा रहित अनुष्ठानकों प्राप्त होते है, इति गाथाद्वयार्थः ॥ (६४) अब भव्य जीवोंकों विचारना चाहियें कि जब श्रावक श्राविकायोंकों रोहिणी अंबिका प्रमुख देवीयोंका तप करणा और तिनकी मूर्तियोंकी पूजा करनी शास्त्रमें कही है. और तिनके आराधनके वास्ते तप करणा कहा है, अरु सो तप अपचारसें मोक्षका मार्ग कहा है. तो फेर जो कोइ मताग्रही शासनदेवताका कायोत्सर्ग अरु थुइ कहनी निषेध करता है तिसकों श्रीजैनधर्मकी पंक्तिमें क्योंकर गिनना चाहीयें, अर्थात् नहीज गिनना चाहीयें. क्योंकि जैनमतमें सूर्यसमान श्रीहरिभद्रसूरिकृत्त पंचाशक सूत्रका मूल, और नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरिकृत पंचाशककी टीकामें तप करके सम्यग्दृष्टी देवतायोंके प्रतिमाकी पूजा करनी औसा प्रगटपणे कहा है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy