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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ शिथिलाचारी जानके चैत्रवाल गच्छीय श्रीदेवभद्रगणि संयमी के समीप चारित्रोपसंपद् अर्थात् फेरके दीक्षा लीनी । इस हेतुसें तो श्रीजगच्चंद्रसूरिजी महाराजके परम संवेगी श्रीदेवेंद्रसूरिजी शिष्ये श्रीधर्मरत्नग्रंथकी टीकाकी प्रशस्तिमें अपने बृहद् गच्छका नाम छोडके अपने गुरु श्रीजगच्चंद्रसूरिजीकों चैत्रवाल गच्छीय लिखा । सो यह पाठ है।
क्रमशश्चैत्रावालक, गच्छे कविराजराजिनभसीव ॥ श्रीभुवनचंद्रसूरिर्गुरुरुदियाय प्रवरतेजाः ॥४॥ तस्य विनेयः प्रशमै, कमंदिरं देवभद्रगणिपूज्यः ॥ शुचिसमयकनकनिकषो, बभूव भूविदितभूरिगुणः ॥५॥ तत्पादपद्मभंगा निस्संगाश्चंगतुंगसंवेगाः ॥ संजनित शुद्धबोधाः, जगति जगच्चंद्रसूरिवराः ॥६॥ तेषामुभौ विनेयौ, श्रीमान् देवेंद्रसूरिरित्याद्यः ॥ श्रीविजयचंद्रसूरिद्धितीयकोऽद्वैतकीर्तिभरः ॥७॥ स्वान्ययोरुपकाराय, श्रीमद्देवेंद्रसूरिणा ॥ धर्मरत्नस्य टीकेयं सुखबोधा विनिर्ममे ॥८॥ इत्यादि.
इस वास्ते भवभीरु पुरुषोंकों अभिमान नही होता है, तिनकू तो श्रीवीतरागकी आज्ञा आराधनेकी अभिलाषा होती है, तब रत्नविजयजी अरु धनविजयजी यह दोनुं जेकर भवभीरु है,तो इनकोंभी किसी संयमी मुनिके पास फेरके चारित्रोपसंपत् अर्थात् दीक्षा लेनी चाहियें, क्योंके फेरके दीक्षा लेनेसें एकतो अभिमान दूर हो जावेगा, और दूसरा आप साधु नही है तोभी लोकोकों हम साधु है ऐसा केहना पडता है यह मिथ्याभाषण रुप दूषणसें भी बच जायगे, अरु तीसरा जो कोइ भोले श्रावक इनकों साधु करके मानता है, उन श्रावकोंके मिथ्यात्वभी दूर हो जावेगा । इत्यादि बहुत गुण उत्पन्न होवेंगे, जेकर रत्नविजयजी धनविजयजी आत्मार्थी है तो यह हमारा कहना परमोपकाररुप जानके अवश्यही स्वीकार करेंगे।
(८) यह फेरके दीक्षा उपसंपत् करनेका जिस माफक जैनशास्त्रोमें जगे जगे लिखे है, तिसि माफक हम इनोके हितके वास्ते कुछ आप
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