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________________ २.१०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३११ ४. अनन्तरं जीवचिन्तासूत्रमुक्तम्, अथ तदाधारत्वेनाकाशचिन्तासूत्राणि 'कतिविहे णं भन्ते ! इत्यादीनि तत्र लोका - sलोकाssकाशयोर्लक्षणम् इदम्-धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रं तैर्द्रव्यैः सह लोकः तद्विपरीतं हि अलोकाSSख्यम् इति. 'लोयागासे' यादी पद् प्रश्नाः-रात्र छोकाकाशेऽधिकरणे 'जीव' चि संपूर्णानि जीवद्रव्याणि 'जीवदेस' त्ति जीवस्यैव दुद्विपरिकल्पिता ब्रह्मादयो विभागाः 'जपिएस' ति तस्यैव बुद्धिकता एवं प्रकृष्टा देशाः प्रदेशा निर्विभागा भागाः इत्यर्थः 'अजीब' ति धर्मास्तिकायादयः ननु डोकाकाशे जीवा अजीवाश्वेत्युक्ते तदेश-प्रदेशास्तत्रोक्ता एव भवन्तीति, जीवाद्यव्यतिरिक्तत्वाद् देशादीनाम् ततो जीवाऽजीवग्रहणे किं देशादिग्रहणेनेति, नैवम्, 'निरवयवा जीवादयः' इति मतव्यवच्छेदार्थत्वादस्येति. अत्रोत्तरम् - 'गोयमा ! जीवा वि' इत्यादि अनेन चाद्यप्रश्नयस्यनिर्वचनमुक्तम्, अथान्त्यस्य प्रश्नत्रयस्य निर्वचनमाहः - 'जे अजीवे' इत्यादि. 'रूवी य' त्ति मूर्ता: पुद्गला इत्यर्थः 'अरूवी य' त्ति अमूर्ता धर्मास्तिकायादय इत्यर्थः 'संघ' त्ति परमाणुप्रचयात्मकाः स्कन्धाः स्कन्धदेशा ह्लादयो विभागाः स्कन्धप्रदेशास्तस्यैव गिरंशा अंशाःपरमाणुपुद्गलाः स्कन्धभावमनापन्नाः परमाणव इति, ततो लोकाकाशे रूपिद्रव्यापेक्षया 'अजीवा वि,' 'अजीवदेसा वि,' 'अजीवप्पएसा वि इति एतदर्थतः स्यात् अगूनाम्, स्कन्धानां चाऽजीवग्रहणेन ग्रहणात्. " ४. आगळना प्रकरणां जीवना विचार संबंधे सूप कयुं छे. हुने आकाश संबंधी विचारगां सूत्रो कद्देवानां छे. कारण के आकाश जीवना आधाररूप . [ 'कतिविद्दे मे भेते ) इत्यादि सूचो आकाश संबंधे छे. आकाशना वे विभाग है-लोकाकाश अने अलोकाकाश से बने रूप जा हे नाकाशनीमांन जे क्षेत्रमा धर्मास्तिकाय वगेरे द्रव्यो रहे ते क्षेत्र ते द्रव्योसहित लोक-लोकाचा अने के क्षेत्र तेवी उठटुं छे ते अठोड अलोकाकाश कहे-. वाय. [ 'लोयागासे णं' ] इत्यादि सूत्रमां छ प्रश्नो छे. तेमां लोकाकाशरूप अधिकरण- आधार-मां [ 'जीव' त्ति ] संपूर्ण जीवद्रव्यो - जीवो - रहे छे. ['जीवदेस' सि] जीवना देशो अर्थात् बुद्धिची कल्ला जीवना ज (वे ऋण बगेरे) विभागो ['जीवप्पएस' ति] जीवना प्रदेशो अर्थात् ते जीवदेशना ज बुद्धिवी कल्लेता व सूक्ष्म भागो करीवार के भागना बीजा नाग न यह शके तेवा भागो. 'जीवति] अजीबो-धर्मास्तिकाय वगेरे. शं०- 'लोकाकाशमां जीवो अने अजीवो छे' एम कहेवाथी ज ' जीवोना अने अजीवोना देशो अने प्रदेशो पण लोकाकाशमां छे' ए बात जणाय ते शंका. सहज ज छे, कारण के जीवना अने अजीवना देशो तथा प्रदेशो जीव के अजीवथी नोखा नथी-जीवो, जीवदेशो अने जीवप्रदेशो ए बधुं एक ज छे तथा अजीवो, अजीवदेशो अने अजीवप्रदेशो ए बधुं पण एक ज छे. माटे अहीं जीवदेशो वगेरेने जूदा शा माटे का ? समा०- ए प्रमाणे समाधान. शंका करवी युक्त नथी, कारण के जीवादिकनुं ग्रहण कर्या छतां जे तेना देशादिकनुं जूनुं ग्रहण कर्तुं छे ते सकारण छे. ते कारण आ छे:-केटला कोनुं मत एवं छे के, जीवो वगेरे अवयवरहित वस्तु छे, तो ते मतना निरासने माटे अने 'जीवो वगेरे सावयव वस्तु छे' ए वातने सूचववा माटे जीवदे- अन्यमत निरास शादिक मण कई छे. पूर्वे जे छ प्रोका छे तेनो उत्तर आछे ['गोधना ! जीवा वि' इत्यादि ] आ सूची रुजतना पण प्रधोना उत्तरो जणाव्या छे. हवे छेला त्रण प्रश्नोना उत्तरो कहे छे, [ 'जे अजीवे' इत्यादि. ] [ 'रूवी य'त्ति ] पुद्गलो मूर्त छे-रूपवाळा छे. [ 'अरूबीयति ] पर्यास्तिकाय वगेरे अमूर्त अपीछे. ['संघ' ति] परमाणुना समूहरूप ते कंधो मे पग वगेरे स्कंधना भागो ते कंपदेशो स्कंध देशना ज जेना भाग न थइ शके तेवा अंशो ते स्कंधप्रदेशो. स्कंघभावने नहीं पामेला जे परमाणुपुद्गलो ते परमाणुओ. तेथी लोकाकाशमां रूपी स्कंषप्रदेश. परमाणु. द्रव्यनी अपेक्षार ['अजीमा वि अजीवदेसा वि, अजीवणरसा वि'] 'अजीयो अजीवदेशो अने अजीवदेशो पण छे' ए बात अर्थात् समजाय " तेम छे. कारण के अजीवनुं ग्रहण करवाथी अणु अने स्कंधोनुं ग्रहण पण थइ जाय छे. , ५. 'जे ते पंचवा' इत्यादि अन्यत्र अरूपिणो दशविधा उक्ताः, तद्यथाः- आकाशात्तिकायः, तदेशः, साप्रदेशचेति, एवं धर्माऽधर्मास्तिकायौ, समयश्चेति दश, इह तु सभेदस्याकाशस्याधारत्वेन विवक्षितत्वात् तदाधेयाः सप्त वक्तव्या भवन्ति, न च तेऽत्र विवक्षिताः, वक्ष्यमाणकारणाद्ः ये चितारतानाह'' इति कथमित्याहः 'धम्मस्थिकाय' इत्यादि. इद जीवानां पुलानां च बहुत्वादेकस्याऽपि जीवस्य पुद्रस्य वा स्थाने संकोचादितथाविधपरिणामवशाद् बहनो जीवाः पुद्राक्ष तथा तदेशाः साप्रदेशाश्च संभवन्तीति कृत्वा जीवाश्च, जीवदेशाश्च, जोवप्रदेशाश्च; तथा रूपिद्रव्यापेक्षयाऽजीवाश्व, अजीवदेशाश्च, अजीव प्रदेशाश्चेति संगतम्, एकत्राप्याश्रये भेदवतो वस्तुत्रयस्य सद्भावाद् धर्मास्तिकायादी तु द्वितयमेव युक्तम् यतो यदा संपूर्ण वस्तु विवक्ष्यते सदा 'धर्माऽतिकायादि' शयुष्यते, तदंश वि यक्षायां तु तत्प्रदेशा इति तेषामवस्थितरूपत्वात् तदेशकल्पनात्ययुक्ता तेषामनवस्थितरूपत्वादिति यद्यपि चानवस्थितरूपलं जीवादिदेशानामप्यस्ति तथाऽपि तेषामेकाश्रये भेदेन संभयः प्ररूपणाकारणम्, इह तु तजाति, धर्मास्तिकायादेरेकत्वाद असंकोचादिधर्मत्याचेति, अत एव धर्मास्तिकायादिदेश निषेधायाऽऽहः- “नो 'घम्मात्थिकायस्स देसे' तथा ' नो अधम्मत्थिकायस्स देसे' ति. , " 1 ५. जे अस ते पंचवा' इत्यादि.] बीजे ठेकाणे अरूपिओना दश प्रकार छे. ते आप्रमाणे आकाशाशिवाय, आकाशास्तिकायदेश आकाशाशिवायप्रदेश, धर्मास्तिकाय, धर्मातिकादेश, धर्मास्तिकायप्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायदेश, अधर्मास्तिकायप्रदेश भने समय Jain Education International शं० - ज्यारे बीजे स्थळे अरूपिना दश भेद कला छे त्यारे अहीं पांच भेद कला तेनुं शुं कारण ? समा०-अहीं त्रण भेदवाळा आकाशने आधार शंका समाधान. तरीके गण्युं छे माटे तेना त्रण भेद अहीं गण्या नथी. आकाशना त्रण भेद बाद करतां बाकी सात भेद रहे छे तेमां पण ते साते भेदनी अहीं विवक्षा नथी करी, तेनुं कारण आगळ उपर जणाशे अने जे भेदोनी विवक्षा करी छे ते भेदोने कहे छेः - [ 'पंच' इति ] पांच पांच केवी रीते १ तो कहे छे के, [ 'धम्मत्थिकाय' इत्यादि. ] जीवो अने पुद्गलो घणा छे माटे ज एम कहेवुं युक्त छे के, 'जीवो जीवदेशो, जीवप्रदेशो अने पुद्गलो, पुद्गलदेशो, पुद्गलप्रदेशो.' अथवा जीवमां अने पुद्गलमां संकोचावानी अने विस्तरवानी फेलावानी-शक्ति छे माटे एक ज जीव या पुद्गल जेटली जग्यामां समाइ शके छे तेटली ज जम्यामां अनेक जीवो तथा अनेक पुगलो समाइ शके छे ( तेथी घणा जीवो अने घणा पुद्गलो संभवी शके छे ) माटे पण एक उचित छे के 'जीवो जीवदेशो अने जीवदेशी तथा पुल, पुलदेशो ने पुलप्रदेश तथा रुद्रियनी अपेक्षार 'अजीयो , 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004640
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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