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________________ ३०८ श्रीरायचंन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २.-उद्देशक १०. हणागणे ति जीवादीनामवकाशहेतुर्बदराणां कुण्डमिव. 'उवओगगुणे' त्ति उपयोगश्चैतन्यं साकारा-ऽनाकारभेदम्, 'गहणगणे' त्ति प्रहणं परस्परेण संबन्धनं जीवेन वा औदारिकादिभिः प्रकारैरिति. १. आगळना प्रकरणमा क्षेत्र विषे हकीकत कही छे अने ते क्षेत्र, अस्तिकायना एक देशरूप छे माटे हवे अस्तिकाय संबंधे विवेचन थाय ते सुसंगत छे तो ते विवेचन करवा सारु आ दशम उद्देशक शरु थाय छे अने तेनुं आदि सूत्र आ छे:-[ 'कइ णं' इत्यादि.] अस्ति एटले प्रदेश अने काय एटले समूह अर्थात् अस्तिकाय एटले प्रदेशोनो समूह. अथवा 'अस्ति' ए शब्द त्रणे काळनो सूचक निपात (अव्यय ) छे. अर्थात् जे थाय छ, थया अने थशे एवा जे प्रदेशोनो समूह ते 'अस्तिकाय' कहेवाय. शरुआतमा जणाव्युं छे के, पांच अस्तिकायो छे - अने ते आ छ।-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय अने पुद्गलास्तिकाय. शं०-आ पांच अस्तिकायोने लखवामा उपलो ज क्रम वपराये छे अने जे उपलो क्रम राख्यो छे तेनुं शुं कारण ! समा.-'धर्मास्तिकाय' ए शब्दमा आदिमां 'धर्म' शब्द छे अने ते 'धर्म' शब्द मंगळसूचक छे माटे बा तत्त्वोमा पहेलं तत्त्व धर्मास्तिकाय लेख्युं छे. त्यार बाद तेनाथी उलटुं छे माटे अधर्मास्तिकायने जणाव्यु छे. आकाश तत्त्व, ए बन्ने तत्त्वना आशरारूप छे माटे तेने त्रिजुं जणाव्युं छे. ते आकाश अनंत अने अमूर्त छे तथा जीव पण अनंत अने अमूर्त छ, ए रीते ए बन्ने तत्त्वनी सरखाइ होवाने लीधे चोथु जीवतत्त्व गण्युं छे अने ते जीव तत्त्वना उपयोगमा पुद्गल तत्त्व आवे छे माटे तेने सौथी छेलु-पांचमुं-जणाव्युं छे. अवर्ण. [ 'अवण्ण' इत्यादि.] धर्मास्तिकाय वगेरे वर्णादिरहित छे माटे ज अरूपी छे-अमूर्त-छे. ते बधा वर्णादिरहित छे एटले तेमां कोइ पण जातनो धर्म (गुण) नथी एम नथी. कारण के 'अवर्ण' ए शब्दमा रहेलो आदिनो अकार जेम वर्णनी विद्यमानताना निषेधनो सूचक छे तेम ते साथे साथे एटलं पण सूचवे छे के 'जो के तेमा वर्ण नथी पण बीजुं काइ छ' अर्थात् नञ् पर्युदासमां वर्ते छे. ते धर्मास्तिकाय वगेरे द्रव्यथी शाश्वत छे, प्रदेशथी लोकरण्य. अवस्थित छे, 'लोगदव्वे' त्ति] ते धर्मास्तिकाय लोकद्रव्य छ अर्थात् पांच अस्तिकायरूप लोकना अंशरूप द्रव्य छे. भावथी एटले पर्यायथी. गममगुण. [गुणओ' ति] गुणथी एटले कार्यथी [ 'गमणगुणे' ति] गमन-गति-गुणवाळो छे. तात्पर्य एछ के, जेम माछलाने चालवामा पाणी सहायता आपे छे तेम गतिक्रियामा परिणत थएल जीव अने पुद्गलने सहायता आपे छे माटे धर्मास्तिकाय तत्त्व गतिगुणवाळु छे. ['ठाणगुणे त्ति स्थितिगुणयुक्त छ अर्थात् जेम माछलाने उभा रहेवामां जमीन सहायता आपे छे तेम स्थितिक्रियामा परिणत थएल जीव अने पुद्गलने अवगाहनागुण. सहायता आपे छे माटे अधर्मास्तिकाय तत्त्व स्थितिगुणवाळु छ. [ 'अवगाहणागुणे' ति] जेम बोरोने राखवा माटे कुंडं आधारभूत छ तेवी रीते उपयोगगुण. आकाश तत्त्व जीवादिने अवकाशन कारण छे माटे ते अवगाहना गुणवाळु छे. [ 'उवओगगुणे' ति] उपयोग एटले चैतन्य-चित्शक्ति. तेना ग्रहणगुण. बे भेद छः-साकार-आकारवाळो उपयोग अने निराकार-आकार विनानो उपयोग. जीव तत्त्व चैतन्यगुणवाळु छे. ['गहणगुणे' ति] ग्रहण एटले परस्पर संबंध, पुद्गल तत्त्व ग्रहणगुणवाळु छ कारण के औदारिकादि अनेक पुद्गलो साथे प्राणी-जीवनो संबंध छे अथवा प्राणधारी जीव औदारिकादि अनेक जातनां पुद्गलो ग्रहण कर्या करे छे. २. 'खंडे चक्के' इत्यादि. यथा खण्डं चक्रं चक्रं न भवति, खण्डचक्रमित्येवं तस्य व्यपदिश्यमानत्वात् , अपि तु सकलमेव चक्रं चक्र भवति, एवं धर्मास्तिकायः प्रदेशेनाप्यूनो न धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यः स्यात् , एतच्च निश्चयनयदर्शनम् , व्यवहारनयमतं तु एकदेशेन ऊनमपि वस्तु वस्त्वेव, यथा खण्डोऽपि घटो घट एवेति, छिन्नकोऽपि श्वा श्वैव, भणति च 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' इति. 'से कि खाइ' त्ति अथ किं पुनरित्यर्थः सव्वे' त्ति समस्ताः ते च देशाऽपेक्षयाऽपि भवन्ति, प्रकारकास्न्येऽपि सर्वशब्दप्रवृत्तेरिति; अत आह'कसिण' त्ति कृत्स्नाः -नतु तदैकदेशापेक्षया सर्वे इत्यर्थः ते च स्वस्वभावरहिता अपि भवन्ति इति, अत आह-प्रतिपूर्णा:-आत्मस्वरूपेणाऽविकलाः ते च प्रदेशान्तरापेक्षया स्वस्वभावन्यूना अपि तथोच्यन्ते, इत्याह-'निरवसेस' त्ति निरवशेषाः-प्रदेशान्तरतोऽपि स्वस्वभावेनाऽ. न्यूनाः तथा 'एगग्गहगगहित्ति एकग्रहणेनैकशब्देन 'धर्मास्तिकाय' इत्येवं लक्षणेन गृहीता ये ते तथा-एकशब्दाभिधेया इत्यर्थः, एकार्था वैते शब्दाः. 'पएसा अणता भाणअव्व' त्तिधर्माऽधर्मयोरसंख्येयाः प्रदेशा उक्ताः, आकाशादीनां पुनः प्रदेशा अनन्ता वाच्याः, अनन्तप्रदेशिकत्वात् त्रयाणामपीति. २.[खंडे चक्के' इत्यादि.] जेम चक्र-पैडा-नो खंड-एक भाग-ते चक्र न कहेवाय, पण चक्रखंड कहेवाय अने जो आखं चक्र होय तो ज ते चक्र कहेवाय, तेम ज ज्यां सुधी एक पण प्रदेशनी ऊणप होय त्यां सुधी ते धर्मास्तिकाय न कहेवाय, पण ज्यारे पूरेपूरा प्रदेशो होय त्यारे ज ते निश्चय भने व्यव. धर्मास्तिकाय कहेवाय अर्थात् ज्यारे पूरेपूरी-आखेआखी वस्तु होय त्यारे ज ते वस्तु कहेवाय, पण जरा य अधूरी वस्तु वस्तु न धार नय. कहेवाय, ए प्रमाणे निश्चयनयन मत छे. व्यवहार नयनी दृष्टिए तो जराक अधूरी वस्तु पण आखी वस्तु लेखी शकाय छे, ते व्यवहार नय घडाना लौकिक न्याय. टुकडाने पण घडो कहे छे अने जे कूतराना कान कपाया छे-जे कूतरो बूचो छे-ते पण कूतरो ज कहेवाय छे अर्थात् जे वस्तुनो कोइ भाग विकृत थयो होय तो पण ते वस्तु मूळवस्तु जेवी ज गणाय छे-'तेमां थएलो विकार मूळ वस्तुनी ओळखमां बाधक थतो नथी.' ए प्रमाणे व्यवहार नयन मंतव्य छे. [ से किं खाइ'त्ति ] हवे शुं वळी. [ 'सव्वे' ति] सर्व एटले बधा, 'थोडा घणा पदार्थों होय तो पण ते बधा पदार्थों छे' एम कही शकाय छे, कारण के.'सर्व' शब्द एक देशीय सर्वतानो पण सूचक छे. आ स्थळे 'सर्व' शब्दनो पूर्वोक्त अर्थ न लेवाय माटे कहे छ के [ 'कसिण' त्ति ] कृत्स एटले बधा-पूरेपूरा नहीं के एक भागनी अपेक्षाए बधा, किंतु सर्व प्रकारे बधा. तेओ बधा होय, पण तेओ पोतपोताना स्वभावरहित होय माटे कहे छे के, तेओ बधा प्रतिपूर्ण होय-पोत पोताना स्वभावथी भरेला होय. बीजा प्रदेशनी अपेक्षाए स्वस्वभावरहित होय, तो पण प्रतिपूर्ण प्रदेशो कहेवाय माटे कहे छे के, ['निरवसेस' त्ति] निरवशेष अर्थात् प्रदेशांतरथी पण स्वस्वभावथी न्यून नहीं. तथा [ 'एगग्गहणगहिअ' त्ति] धर्मास्तिकायरूप एक शब्दथी कही शकाय तेवा. अथवा ए बधा शब्दो समान अर्थवाळा छे. ['पएसा अणंता भाणिअब्ब' त्ति ] धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायना असंख्य प्रदेश कया छे, वळी आकाश वगेरे त्रण तत्त्वना-आकाश, जीव अने पुद्गलना-तो अनंत प्रदेशो कहेवा, कारण के ए प्रणेना अनंत Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004640
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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