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'श्रीरामचन्द्र - विनागमसंग्रहे
शव २.देशक. १.
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वक्तव्यः स्यात् प्राकृताव्याच सूत्रे नपुंसकलिङ्गताऽस्य इति अन्यर्थयुक्तशब्दैरुच्यमानः किम् असी वक्तव्यः स्वाद् इति भावः अत्रोतरम् -- 'पाणेति वत्तव्वं' इत्यादि. तत्र प्राण इति एतत् तं प्रति वक्तव्यं स्यात्, यदा उच्छ्वासादिमत्त्वमात्रम् आश्रित्य तस्य निर्देश: क्रियंते. एवं भवनादिधर्मविवक्षया भूतादिशब्दपञ्चकवाच्यता तस्य कालभेदेन व्याख्येया. यदा तु उच्छ्वासादिधर्मैर्युगपदसौ विवक्ष्यते तदा प्राणः, भूत, जीवः, सत्य:, विज्ञः, वेदयिता इति एतत् तं प्रति वाच्यं स्यात्, अथवा निगमनवाक्यम् एव इदमन, अतो न युगपद सत्त्वः, पक्षव्या या कार्या इति. 'जम्हा जीपे' इत्यादि यस्माद् जीवः आत्माऽसौ जीवति प्राणान् धारयति तथा जीववम् उपयोगलक्षणम आयुष्कं च कर्म उपजीवति अनुभवति तस्माद् जीव इति वक्तव्यं स्वाद् इति. 'जम्हा सत्ते सुहा ऽसुहेहि कम्पेहिं' ति सक्त आसता, शंक्तो वा समर्थः सुन्दराऽसुन्दरासु चेष्टासु, अथवा सक्तः संबद्धः शुभाऽशुमैः कर्मभिरिति अनन्तरोक्तस्यैनाऽर्थस्य विपर्ययम् आहःमढाई' इत्यादि. 'पारगए' चि पारगतः संसारसागरस्य 'भाविनि भूतबद्' इत्युपचाराद् इति. 'परंपरगए' त्ति परंपरया मिथ्यादृष्टवादिगुणस्थानकानाम्, मनुष्यादिगतीनां वा पारंपर्येण गतो भवाऽम्भोधिपारं प्राप्तः परंपरागतः.
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३. आगळना प्रकरणमां ‘वायुकायनी फरी फरीने वायुकायमां ज उत्पत्ति थाय छे' एम कधुं छे. माटे हवे 'कोइ मुनिनी पण संसार मृतादी, चक्रनी अपेक्षाए फरी फरीने त्यां ज उत्पत्ति थाय' ए वातने दर्शावतां कहे छे के: - [ 'भडाई णं भंते! नियंठे' इत्यादि . ] मृत एटले निर्जीव, अदी पटले खानार मृतादी एटले प्रामुक पदार्थने जमनार उपलक्षण होवाथी 'एपगीय पदार्थने खानार' पण लेबो. निर्भय एटले साधु अनिरुद्धमय ['हवं'] एटले शीघ्र, ( आवे छे ) ए प्रमाणे वाक्यसंबंध छे. केलो भयो छतो? तो कहे छे के, [ 'नो निरुद्धभवे 'ति ] जेणे आवतार जन्मने रोक्वो नयी अर्थात् मे छेलो भव प्राप्त कर्यो नमी एवो. जेगे आवनार जन्मने रोक्यो नथी एवो साधु तो वे भय पछी पण मुक्ति प्राप्त करवानो मनिस्वमपंच होय माटे कहे छे के, [ 'जो निरुद्धभवपवंचे' चि] जेणे भरनो विस्तार अटकाव्यो नथी मे हजु अनेक भयो पामवानो के ते. जेणे भवना वि
सार विस्तारने अटकाव्यो नथी एवो साधु तो देवना अने मनुष्वना ज अनेक भवो पामयानो होय माटे कड़े छे, [ 'जो पद्दीनसंसारे' चि] जेनो चार गतिमां फरवारूप संसार क्षीण थयो नथी एवो. एम छे माटे ज [ 'नो पहीण संसारवेअणिज्जे' त्ति ] जेनुं संसारवेदनीयकर्म क्षीण थयुं नथी एवो. अविच्छिन्नसंसार जेनुं संसारवेदनीयकर्म क्षीण थयुं नथी, एवो साधु तो एक बार ज चारे गतिमां जनारो पप होय माटे कहे छे के, [ 'नो वोच्छिण्णसंसारे' त्ति ] जेने चारे गतिमां अनेकवार जवानुं छे एवो. एवो के माटे ज [ 'जो वोन्तिसंसारवेअभिने' ति] जेनुं संसारवेदनीय कर्म-पारे गतिमां अनेकवार रखअनिष्ठितार्थ-करणीय, डवामां कारणभूत कर्म-टुट्युं नथी एवो. एवो छे माटे ज ['नो निट्ठिअट्ठे' त्ति] जनुं प्रयोजन असमाप्त - अधुरुं-छे एवो, माटे ज ['नो निट्ठिअट्ठकरणिजे ' त्ति ] जेनां कार्यों पूरा थएल कार्योंनी पेठे पूरां थयां नथी एवो. एवा प्रकारनो ए मुनि फरीने पण अर्थात् आ अनादि संसारमां पूर्वे अनेकवार मनुष्यपणुं वगेरे प्राप्त पंह, पण हमणां शुद्ध चारित्र प्राप्त थवावी तेनी प्राप्ति असंभवती छे मुक्त यवानुं संभवतुं छे एवा समये पण करीची [ इत्यत्थं' ति ] एवी स्थितिने–अनेकवार तिर्येच, मनुष्य, देव अने नारकिमां जवारूप अवस्थाने -[ 'हव्वं' ति ] शीघ्र [ 'आगच्छइ' त्ति ] पामे. आ खळे 'इत्यत्यं' ने बदले 'त्यत्त' एवो बीजो पाठ पण छे. तेनो अर्थः एवा प्रकारे रद्देवानुं मनुष्य वगेरे प्रकारे रहेवानुं श्रीषादिक रूपायना उदये करी चारित्रयी अळी गएला भ्रष्ट मला साधुने संसारमां रसदधुं पढे छे. ते विषे कश्रुं छे के, "जेना कोधादिक रूपायो उपशमी गवा छे एवो जीव फरीने पण संसारमां अनंत प्रतिपातने-ठेबांने पामे छे." "संसारचक्रमां भमतो मुनिनो जीव प्राण वगेरे छ नामोवडे जूदे जूदे समये के एक समये बोटावी शकाय ए वातने कद्देवानी इच्छायाळा सूत्रकार पक्ष करतां कहे छे के, [से किं ति वत्त' इत्यादि.] अर्थात् जेवी व्युत्पत्ति छे तेवा अर्थवाळा प्राण, जीव वगेरे शब्दो ते मुनिने बोलाववामां वपराय - ए प्रमाणे ते मुनि 'प्राण' कहेवाय, 'जीव' कहेवाय तेनुं कारण! क रीते ते मुनि उपर प्राणा, जीव वगेरे शब्दोनो प्रयोग भइ शके अहीं उत्तर आ रीते छे:-[ 'पायेति चतयं' इत्यादि.] ज्ारे ते प्राण सुनि मात्र उच्छ्वास, निःश्वासपाये होय, एम कल्पीए मारे ते 'प्राण' कहेबाय. (ए प्रमाणे ज्यारे ते मुनिमां भवनरूप पवारूप-धर्म कल्लीए त्यारे ते 'भूत' कहेवाय ) तथा ए रीते भवन ( थवं ) वगेरे धर्मनी विवक्षा करवाथी 'भूत' इत्यादि पांच शब्दो ते मुनिने बोलाववामां जूदे जूदे काळे वापरी शकाय छे. अने ज्यारे एक ज काळे ते मुनिमां उच्छ्वास वगेरे धर्मों कल्पवामां आवे त्यारे तो ते मुनि 'प्राण' 'भूत' 'जीव' 'सत्त्व ' ‘विज्ञ’ अने ‘वेदयिता’ कहेवाय. अथवा आ निगमन - उपसंहार - सूचक ज वाक्य छे माटे 'प्राण वगेरे शब्दो एक ज काळे वपराय' एवी व्याख्या
भूत.
करवी. [ 'जम्हा जीवे' इत्यादि. ] ते मुनि जीवे छेप्राणोने धारण करे छे तथा उपयोगरूप जीवपणाने अने आयुष्य कर्मने अनुनये छे माटे ते
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सस्व. 'जीव' कहेवाय . [ 'जम्हा सत्ते सुहासुहेहिं कम्मेहिं' ति ] सारी अने नरसी चेष्टामां ते मुनि आसक्त छे के समर्थ छे माटे अथवा ते शुभ अने अशुभ
पारगत. कर्मों साधे संबंधवाळो छे माटे 'सत्त्व' कहेवाय. हवे आगळ कहेली वातथी ज उलटी वातने दर्शावतां कहे छे के, [ 'मडाई' इत्यादि. ] [ 'पारै
पर
गए' ति ] पारगत एटले संसाररूप समुद्रना पारने पामे [ 'परंपरगए चि] परंपरांवडे - मिव्यादृष्टि वगेरे गुणस्थानकोनी के मनुष्य वगेरे सुगतिनी परंपरावढे संसाररूप समुद्रना पारने पांगेल ते परंपरागत
१. अहीं प्राकृतनी शैलीथी अनुखार लोपायो छे:- श्रीअभय० २. आ अर्थ श्रीविशेषावश्यक सूत्रमां १३०९ मी गाथामां छे. (१० ५६९, य० ग्रं० ):- अनु० ३. आ शब्द प्रश्न सूचक छे। अने सामान्यवाचक होवाथी तेनो, नान्यतर जातिथी निर्देश कर्यो छे. ४. प्राकृत शैलीथी आ शब्दने नपुंसकलिंगे मूक्यो छे. ५. आ मुनि 'पारगत' केम कहेवाय ? कारण के ते पारने पामेलो नधी, पण पारने पामवानो छे, तो कहे छे के, 'थवानुं कार्य पण कोइ वार 'थए' मनाय छे' एवा व्यवहारथी 'पार पामवानो छे' तो पण 'पारने पामेलो छे' एम कनुं छे :- श्रीअभय ०
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