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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १.-उद्देशक ८.
स्थिरतावाळी स्थिति ते शैलेशी. ज्यारे तद्दन योगनो निरोध होय छे त्यारे ते शैलेशी नामनी स्थिति होय छे अने ते, पांच हख अक्षरनु उच्चारण करवामां जेटलो काळ लागे तेटला काळ सुधी रहे छे. ते शैलेशी दशाने पहोंचेला-पामेला ते 'शैलेशीप्रतिपन्नक' कहेवाय. ['लद्धिवीरिएणं ति] ['सवीरिय'त्ति] वीर्यातरायना क्षय अने क्षयोपशमथी थएली जे वीर्यनी लब्धि, ते ज वीर्य मळवामां कारणरूप छे माटे वीर्य-'वीर्यलब्धि'-कहेवाय तेवडे तेओ वीर्यवाळा छे अने एओनुं लब्धिवीर्य क्षायिक ज छे. ['करणवीरिएणं' ति] लब्धिवीर्यनी जे कार्यभूत क्रिया ते 'करण' कहेवाय अने तद्रूप जे वीर्य ते करणवीर्य कहेवाय. ['करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया वि' ति] तेमां सवीर्य एटले उत्थानादि क्रियावाळा, अवीर्य एटले उत्थानादि क्रिया विनाना. अने तेओ (अवीर्य) अपर्याप्तादि वखते जाणवा. ['नवरं सिद्धवजा भाणियव्व' ति] सामान्य जीवोमा सिद्धो आवे छे अने मनुष्योमां तो तेओ नथी आवता, माटे मनुष्यना दंडकमा वीर्य विषे सिद्धोनुं स्वरूप न कहेवू.
बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् , दायी यः सद्गुणानो परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपखी। अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योर, दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिववरं मारहा चाप्तमुख्यः॥१॥
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