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________________ પદ્મસુધા ૫૯ अगास, ता. २५-७-४५ વિ. આપનાં બન્ને કાર્ડ મળ્યાં છે. દરેકને ભારે ગણાતી માંદગીમાં વળતાં પાણી જાણી સંતાષ થયા છેજી. ખરી દવા તે ઉપશમરૂપ જ્ઞાનીપુરુષોએ વખાણી છે, તે સાજા અને માંદા બધાને નિર'તર સેવવા ચાગ્ય છે, ડૉક્ટર અને દરદી બન્નેને સરખી ઉપયેાગી છેજી. આટલે લક્ષ જો જીવને રહ્યા કરે તે જેને સદ્ગુરુનું શરણ પ્રાપ્ત થયું છે તેને મરણને પણ ડર ન રહે, સમાધિમરણ પણ થાય. પણ જીવ પથારીમાંથી ઊઠયો કે જાણે માંદગી આવી જ નથી કે મરણ આવવાનું જ ન હોય તેમ વર્તે છે. તેનું શું કારણ હશે ? તે વિચારી તેના જે ઉપાય હાથ લાગે તે સદ્ગુરુશરણે આરાધતા રહેવા સર્વ નાનાં-મોટાં ભાઈ-બહેનેાને વિન'તી છેજી. ઉપશમસ્વરૂપ એવા જ્ઞાનીપુરુષાએ ઉપશમસ્વરૂપ એવાં શાશ્ત્રા અને મેધ દ્વારા ઉપશમરૂપ દવાને સેવવા જણાવ્યું છે તે જરૂર લક્ષમાં લેવા યાગ્ય છેજી. ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ९०० 35 ૫૪૫ अगस, ता. २७-७-४५ अषाढ १६ ३, २००१ તત્ સત્ आपका उल्लासभाव पूरित पत्र प्राप्त हुआ. समाचार पढ लिया. यह विचार आया जो आप ऐसा भाव हृदयमें रखकर परमकृपाळुदेव ही एक उपास्य हैं. प. पू. प्रभुश्रीजी आदि अनेक उसकी उपासनामें आ जाते हैं. सब भक्ति, वाचन, प्रार्थना, अर्पणभाव इसी लक्षको पोषनेके लिये करता हूँ; संसार- सागर तारनेको वह समर्थ है. मैं उसकी आज्ञा कोई संत द्वारा पाकर उसकी (परमकृपाळु देवकी) ही भक्ति करता हूँ. यह भाव आपकी समझमें आ जाय तो विशेष लाभका कारण समझकर यह समझाने के लिये आपकी भाषा में लिखनेका प्रयत्न किया है. मैं तो मात्र चिठ्ठीका चाकर हूँ. आपके पुण्यउदयसे आपको पू.......आदिका समागम हुआ. उनके संबंधसे आप धामण आए. वहाँ परमकृपालुदेवके योगबलसे आपकी श्रद्धा परमकृपालुकी आज्ञा के लिये हुई. जैसा कार्य पू. "ने आपको धामण तक लानेका किया, वैसा कार्य परमकृपाळुदेवकी आज्ञा आरोपणका मेरे द्वारा हुआ. ज्यों ब्राह्मण लग्नकी विधि कर वरकन्याका मिलाप कराता हैं और वरकन्या परस्पर प्रेममें मग्न होते हैं, त्यों आपकी दृष्टि परमकृपालुदेव के प्रति लग गई, पिछे आपका प्रेम परमकृपाळुदेव के प्रति पतिव्रता सती की तरह होना योग्य है, मैं तो पामर प्राणी आपके जैसा मुमुक्षु हूँ, साधकदशामें रहना मेरे लिये हितकारी है. आपके लिये भी वह दशा परमकृपालुदेवकी भक्ति ही योग्य है, ज्ञानी तो वह पुरुष है, यह बात आप विचार कर हृदयमें स्थिर करो, यह मेरी आपसे वारंवार प्रार्थना हैं. अनेक दफे मैं ने पू. और पू. से यह काम करने को सूचना की थी. पर ंतु यह आपकी समझमें नहीं आया है जैसा विचार आपका पत्र पढने से आया. आपका भाव दिनदिन बढता जाये ऐसी परमकृपाळुदेवके प्रति मेरी हार्दिक प्रार्थना है. परतु मंत्रादि आज्ञा आपको बता देना मेरा कार्य था सो सद्गुरु आज्ञासे किया. अब विशेष योग्यता मेरी नहीं है. जो भक्ति करता हूँ वह आप भी करो. आपको कोई मुश्केली धर्ममार्ग में हो तो पूछो. मेरी समझमें उसका उत्तर देने योग्य होगा सो सरल भावसे दे सकता हूँ. परंतु आप परमकृपाळुदेवके संतान हो ऐसा भाव सर्वको हितकारी है. यह परम रक्षकभाव है. उसकी आज्ञा ही सर्व मुमुक्षुओं का जीवन है. प्राणांत प्रसंग में भी उसकी आशा स्मरणमंत्र नहीं भूलना अन्य प्रवृत्ति प्रारब्ध आधीन होगी. शरीर और शरीरका कार्य अचेतन है. आत्मा और आत्माका भाव सचेतन है, वह आत्मभाव सद्गुरु परमकृपालुदेवके चरणों में रहो यही प्रार्थना है. ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
SR No.004638
Book TitleBodhamrut Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGovardhandas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1992
Total Pages824
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Spiritual, & Rajchandra
File Size25 MB
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