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४) आरम्भजा हिंसा - जीवननिर्वाह के निमित्त होनेवाली हिंसा - जैसे भोजनका पकाना। यह निर्वाहात्मक हिंसा है।
जहाँ तक उद्योगजा और आरंभजा हिंसा की बात है तहाँ तक एक गृहस्थ उससे नहीं बच सकता। क्योंकी जब तक शरीर का मोह है, तब तक आजीविका का अर्जन और शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति दोनों ही आवश्यक हैं। यद्यपि इस स्तर पर मनुष्य अपने को त्रस प्राणी की हिंसा से बचा सकता है। जैन धर्म में उद्योग-व्यवहार एवं भरण-पोषण के लिए भी त्रस जीवों की हिंसा करनेका निषेध हैं।
प्रथम स्तर पर हम आपत्ति, तृष्णा आदि के वशीभूत हो कर की जानेवाली अनावश्यक आक्रमणात्मक हिंसा से बचें, फिर दूसरे स्तर पर जीवनयापन एवं आजीविकोपार्जन के निमित्त होनेवाली त्रस हिंसा से विरत हों। तीसरे स्तर पर विरोध के अहिंसक तरीके को अपनाकर प्रत्याक्रमणात्मक हिंसा से विरत हैं। इस तरह जीवन के लिये आवश्यक जैसी हिंसा से भी क्रमशः उपर ऊठते हुए चौथे स्तर पर शरीर और परिग्रह की आसक्ति का परित्याग कर सर्वतोभावन पूरी अहिंसा की दिशा में आगे बढ़े।
जैन दर्शन में अहिंसा और सर्व जीवों प्रति आत्मभाव का विशेष रूप से उपदेश दिया गया। वनस्पति में सजीव होने के नाते अन्य जीव-जन्तुओं के साथ उसके प्रति भी अहिंसक आचार विचार का प्रतिपादन किया गया। एक छोटे से पुष्पको शाखासे चूंटने के लिए निषेध था - फिर जंगलों काटने की तो बात ही कहाँ ? जलमें बहुत छोटे छोटे जीव होते हैं - अतः जलका उपयोग भी सावधानी से और अनिवार्य होने पर ही करने का आदेश दिया गया। रात्रि के समय दीप जला कर कार्य करने का भी वहाँ निषेध है। दीपक की आसपास अनेक छोटे छोटे जीव-जंतु उड़ने लगते हैं और उनका नाश होता है, अत:जीवहिंसा की दृष्टि से दीपकके प्रकाशमें कार्य करना निंदनीय माना गया।
जैनदर्शन की आचारसंहिता के निषेधों के कारण स्वाभाविक ढंग से ही वनस्पति, जल, अग्नि आदि तत्त्वों का उपयोग मर्यादित हो गया। जिस से छोटे
શાળવારા
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(જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨)
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