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अहिंसा का घोष करती हुई भी हिंसात्मक कार्यों में अनेक बहानों से प्रवृत्त देखी जा सकती है। किन्तु जैन संस्कृति जो कहती है, वही व्यवहार में उतारने की कोशिश करती है । यही कारण है, जैनाचार्यों ने समय की गतिविधि को देखते हुए अनेक वैदिक अनुष्ठानों व हिंसात्मक कार्यों का विरोध किया है। यह विरोध जैन धर्म में सर्वभूतदया की भावना का ही प्रतिफल है।
जैनधर्म में अहिंसा को व्रत माना गया है। वस्तुतः हिंसात्मक कार्यों से विरत होने में कठिनता का अनुभव होने से ही अहिंसा को व्रत कह दिया गया है, अन्यथा 'करुणा, अहिंसा तो दैनिक कार्यों एवं सुखी जीवन का एक आवश्यक अंग है। यह मानव की स्वाभाविक परणति है । उसे व्रत मानकर चलना उससे दूर होना है। अहिंसा तो भावों की शक्ति है। आत्मा की निर्मलता एवं अज्ञान का विनाश है।
कोई भी व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में अचानक परिवर्तन लाकर अहिंसा को उत्पन्न नहीं कर सकता । अहिंसा का उत्पन्न होना तो आत्मा में परिवर्तन होने के साथ होता है। आत्मा के परिवर्तन का अर्थ है, उसे पहिचान लेना । यह पहिचान ही निज को जानना है, सारे विश्व को जानना है। जब व्यक्ति इस अवस्था पर पहुँच जाता है तो समस्त विश्व के जीवों के दुःख का स्पन्दन उसकी आत्मा में होने लगता है । यह करुणामय स्पन्दन होते ही हिंसा स्वयं तिरोहित हो जाती है । उसे हटाने के लिए कोई अलग से योजना नहीं करनी पड़ती । अहिंसा उत्पन्न हो जाती है ।
हिंसा की निवृत्ति और अहिंसा के प्रसार के लिए जैन धर्म में गृहस्थों के अनेक व्रत नियमों को पालन करने का उपदेश दिया गया है। प्रत्येक कार्य को सावधानी पूर्वक करने एवं प्रत्येक वस्तु को देख - शोधकर उपयोग में लाने का विधान गृहस्थ के लिए मात्र धार्मिक ही नहीं व्यावहारिक भी है। जीवों के घात के भय से जैन गृहस्थ अनेक व्यर्थ की क्रियाओं से मुक्ति पा जाता है। प्रत्येक वस्तु को देखभालकर काम में लाने की आदत डालने से मनुष्य हिंसा से ही नहीं बचता, किन्तु वह बहुत-सी मुसीबतों से बच जाता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आचार्यों ने अनर्थदण्डव्रतों का विधान किया है। रात्रिभोजन
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
જ્ઞાનધારા
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