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________________ दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् प्रथम दशा 'श्रुतं मया भगवता एवमाख्यातम्' यह वाक्य-द्वय इस बात को पूर्णतया परिपुष्ट करता है कि शब्द अपौरुषेय हो ही नहीं सकता; क्योंकि वाक्योत्पत्ति (शब्दोत्पत्ति) कण्ठादि स्थानाश्रित है और स्थान शरीराश्रित / ईश्वर अशरीरी है, अतः शब्द के अपौरुषेय होने की कल्पना ही असम्भव है | सारांश यह निकला कि शास्त्र अपौरुषेय नहीं हैं किन्तु सर्वज्ञ-रचित होने से सर्वथा मान्य और प्रमाण हैं | इस स्थान पर शङ्का हो सकती हैं कि सर्वसाधारण पुरुषों के वाक्यों की तरह शास्त्रादि-वाक्य भी सर्वथा अप्रमाण हैं, क्योंकि पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता इसलिए उनके रचित शास्त्रादि वाक्य भी प्रमाण नहीं हो सकते / इसका समाधान यह है कि आत्मा सर्वज्ञ हो सकती है, यह पहले ही सिद्ध किया जा चुका है / अतः सर्वज्ञ के कथन किये हुए शास्त्र सर्वथा प्रमाण हैं / अपौरुषेय वाक्य असम्भव होने से अप्रामाणिक माने जाते हैं, इसलिए यह स्पष्ट कर दिया कि भगवान के मुख से सुना' / / क्योंकि भक्तिपूर्वक ग्रहण किया हुआ ज्ञान ही पूर्णरूप से सफल हो सकता है, इसलिए भक्ति के वशीभूत होकर सम्पूर्ण विशेषणों से युक्त भगवान् का ही 'सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खाय' सूत्र में वर्णन किया गया है / जैसे 'आउसं तेणं' यह भगवान् का विशेषण है-"आयुष्मता चिरजीविना” इत्यर्थः / चिरजीवीं भगवान् ने ऐसा कहा है / इससे यह सिद्ध होता है कि निरायु (सिद्ध परमात्मा) मुक्तात्मा शरीराभाव से कुछ नहीं कह सकता / __आउसं तेणं' 'श्रुतं मया" यदि ऐसा पाठ पढ़ा जाय, तो मैंने मर्यादापूर्वक गुरुकुल में रहकर यह सुना है-यह अर्थ होता है / फलतः यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक जिज्ञासु को नियमपूर्वक गुरुकुल में रहकर तथा गुरुभक्ति करते हुए ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिए / तभी उसका ज्ञान सफल हो सकता है | यदि 'आउसं तेणं' के स्थान पर “आमुसं तेणं' पढ़ा जाय तो 'आमृशता भगवत्पादारविन्दं भक्तिः करतलयुगलादिना स्पृशता' अर्थात् भगवान् के चरण-कमलों को भक्ति-पूर्वक स्पर्शकर-यह व्याख्या भी हो सकती है / इस परिवर्तन से यह शिक्षा मिलती है कि सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने पर भी गुरु के प्रति श्रद्धा और भक्ति कभी न छोड़नी चाहिए | .
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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