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________________ 458 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा हैं "हे आर्यो ! आयतिस्थान नामक दशा का अर्थ, हेतु और कारण के साथ, सूत्र अर्थ और तदुभय (उन दोनों) के साथ उपदेश किया गया है" इस प्रकार उपदेश का वर्णन कर सूत्रकार कहते हैं "इस प्रकार हे शिष्य ! मैं तुम्हारे प्रति कहता हूं। - आयतिस्थान नामक दशमी दशा समाप्त हुई। टीका-इस सूत्र में प्रस्तुत दशा का उपसंहार किया गया है / अवसर्पिणी काल का चतुर्थ आरक था / श्री भगवान् महावीर स्वामी उस समय विद्यमान थे / वे राजगृह नगर के गुणशील नाम चैत्य में विराजमान होकर सारी जनता को उपदेशामृत पान करा रहे थे / उनके चारों ओर बहुत से श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका, देव, देवी और मनुष्य और असुरों की परिषद बैठी हई थी / उस परिषद के बीच में विराजमान होकर श्री भगवान इस प्रकार प्रतिपादन करने लगे, इस प्रकार निदान कर्म का फलाफल दिखाने लगे “हे आर्यो ! जब कोई व्यक्ति पूर्वोक्त रीति से निदान-कर्म करता है तो उसको उसका / पूर्वोक्त पाप-फल भोगना पड़ता है / यद्यपि सांसारिक वैभव और देवों की सम्पत्ति उसको प्राप्त हो जाती है तथापि सम्यक्त्वादि की प्राप्ति न होने से उसको दुर्गति के दुःखों को अनुभव करना ही पड़ता है / अतः उक्त कर्म करने वाला पापरूप फल की ही उपार्जना करता है इसका इतना विषम फल होता है कि जिन आत्माओं ने सम्यक्त्वादि गुणों की उपार्जना कर ली है उनके लिए भी निदान कर्म श्रमणोपासक, साधुत्व और मोक्ष-पद की प्राप्ति का प्रतिबन्ध या बाधक बन जाता है / अतः यह हेय है / ___ "किन्तु जो व्यक्ति निदान कर्म नहीं करते वे यदि कर्म-क्षय कर सकें तो उसी जन्म में निर्वाण-पद की प्राप्ति कर लेते हैं / उनके मार्ग में कोई प्रतिबन्धक नहीं होता है / निदान कर्म करने वाले को तो अन्य सब कर्मों के क्षय होने पर भी वही (निदान कर्म ही) बाधक रूप उपस्थित हो जाता है / " __ "इस प्रकार श्री श्रमण भगवान् महावीर ने देव, मनुष्य और असुरों की सभा में / सार-पूर्ण उपदेश दिया / यद्यपि श्री भगवान् की भाषा अर्द्धमागधी ही है तथापि उनके अतिशय के भाहात्म्य से प्रत्येक प्राणी अपनी-२ भाषा में उसका आशय समझ जाता है / जिस प्रकार एक-रस मेघ (वर्षा) का जल प्रत्येक वृक्ष के अभिलषित रस में परिणत हो / जाता है, इसी प्रकार भगवान् की भाषा के विषय में भी जानना चाहिए।
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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