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________________ 452 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा अपनी शेष आयु को अवलोकन कर भक्त का प्रत्याख्यान करता है और प्रत्याख्यान करके बहुत भक्तों के अनशन-व्रत का छेदन कर अन्तिम उच्छवास और निश्श्वासों द्वारा सिद्ध होता है और सब दुःखों का अन्त कर देता है। टीका-इस सूत्र में निदान-कर्म-राहित क्रिया का फल वर्णन किया गया है / जैसे-जब निदान-कर्म-रहित व्यक्ति के सब कर्म क्षय हो जाते हैं तो वह भगवान्, अर्हन्, जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है, क्योंकि कर्म-रहित व्यक्ति अनेक गुणों का भाजन बन जाता है / वह केवली भगवान् बनकर सब पर्यायों को सब जीवों को सब लोकों मे देखता हुआ विचरता है / वह लोक में सब जीवों की गति, अगति, स्थिति, च्यवन, उपपात, तर्क, मानसिक भाव, भुक्त पदार्थ, पूर्व-आसेवित-दोष, प्रकट-कर्म, गुप्त-कर्म, मन, वचन और कर्म से किये जाने वाले कर्मों को देखता और जानता हुआ विचरता है | उसकी ज्ञान-शक्ति के सामने कुछ भी छिपा नहीं रह सकता, उसके द्वारा वह हमेशा पदार्थों में होने वाली उत्पाद, व्यय और ध्रुव इन तीनों दशाओं को, काय-स्थिति और भव-स्थिति को, देवों के च्यवन को, देव और नारकियों के जन्म को, जीवों के मन के तर्क और मानसिक-चिन्ताओं को (यथा वदन्ति लोका अस्माकमिदं मनसि वर्तते) इत्यादि सब भावों को, केवली भगवान् होकर देखता है / वह फिर मनुष्य और देवों की सभा में बैठ कर सब जीवों के कल्याण के लिये पांच आस्रव और पांच संवरों का विस्तार-पूर्वक वर्णन करता है, क्योंकि जब किसी आत्मा को केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन उत्पन्न हो जाता है तो वह इस बात को अपना लक्ष्य बना कर उपदेश करता है कि जिस प्रकार मैंने अपना कल्याण किया है ठीक उसी प्रकार दूसरी आत्माओं का भी कल्याण होना चाहिए, अतएव वह सब को जीवाजीव का विस्तार-पूर्वक वर्णन सुनाता है। वह अपने ज्ञान में अनशन, भुक्त, चोरी आदि नीच-कर्म, मैथुन आदि गुप्त-कर्म, कलह आदि प्रकट-कर्मों को सर्वज्ञ होने के कारण जान और देख लेता है / उससे जीवों के योग-संक्रमण, उत्तम उपयोग-शक्ति, ज्ञानादि गुण और हर्ष-शोक आदि पर्याय कुछ भी छिपा नहीं रहता। इस प्रकार बहुत वर्षों तक केवलि-पर्याय का पालन करते हुए अपनी आयु को स्वल्प जान कर अनशन-व्रत धारण कर लेता है / फिर अनशन-व्रत के भक्तों को छेदन कर अन्तिम उच्छवास और निश्श्वासों से सिद्ध-गति को प्राप्त होता है।
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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