________________ 448 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा “तेणेव” यहां सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग किया गया है, यह प्राकृत होने से दोषाधायक नहीं / अब सूत्रकार निदान-रहित संयम का फल वर्णन करते हैं : एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते इणमेव निग्गंथ-पावयणे जाव से य परक्कमेज्जा सव्व-काम-विरत्ते, सव्व-राग-विरत्ते, सव्व-संगातीते, सव्वहा सव्व-सिणेहातिकते, सव्व-चरित्त-परिवुड्ढे / एवं खलु श्रमण ! आयुष्मन् ! मया धर्मः प्रज्ञप्तः इदमेव निर्ग्रन्थ-प्रवचनं यावत् स च पराक्रमेत्सर्व-काम-विरक्तः, सर्व-राग-विरक्तः, सर्व-सङ्गातीतः, सर्वथा सर्व-स्नेहातिक्रान्तः, सर्व-चरित्र-परिवृद्धः / पदार्थान्वयः-समणाउसो-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय से मए-मैंने धम्मे-धर्म पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है इणमेव-यही निग्गंथ-पावयणे-निर्ग्रन्थ-प्रवचन जाव-यावत् सब दुःखों का अन्त करने वाला है इत्यादि से य-वह परक्कमेज्जा-संयम मार्ग में पराक्रम करे और पराक्रम करता हुआ सव्व-काम-विरत्ते-सब कामों से विरक्त होता है सव्व-राग-विरते-सब रागों से विरक्त होता है सव्व-संगातीते-सब के संग से पृथक् होता है सव्वहा-सर्वथा सव्व-सिणेहातिक्कते-सब प्रकार के स्नेह से दूर होता है और सव्व-चरित्त-सब प्रकार के चरित्र से परिवुड्ढे-परिवृद्धं (दृढ़) होता है / __ मूलार्थ हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार मैंने धर्म प्रतिपादन किया है / यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन यावत् सब दुःखों का अन्त करने वाला होता है / वह संयम-अनुष्ठान में पराक्रम करता हुआ सब रागों से विरक्त होता है, सब कामों से विरक्त होता है सब तरह के संग से रहित होता है और सब प्रकार के स्नेह से रहित और सब प्रकार के चरित्र में परिवृद्ध (दृढ़) होता है। टीका-इस सूत्र में नौ निदान-कर्मों के अनन्तर अनिदान का विषय वर्णन किया गया है / श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी जी कहते हैं कि हे श्रमण ! आयुष्मन् ! मैंने