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________________ - - - र 436 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा , उनसे सम्पन्न ही श्रमणोपासक बनूं तभी श्रेयस्कर है / मैं अन्य श्रमणोपासकों के समान जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष इन विषयों में चतुर बन जाऊं तथा किसी भी आपत्ति के आ जाने पर देवों की भी सहायता न चाहूं / इतना आत्म-बल मुझको प्राप्त हो कि मैं अपने लिए सब कुछ अपने आप ही उत्पन्न कर सकू / श्रमणोपासकों के गुणों में यह भी एक गुण है अतः इसी के विषय में वृत्तिकार लिखते हैं “असहेज्जेति' "अविद्यमानं साहाय्यं-परसहायकमत्यन्तसमर्थत्वाद्यस्य स असहाय्यः-आपद्यपि देवादिसहायकानपेक्षः स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमित्यर्थः / मैं अनेक प्रकार की कुतीर्थियों की प्रेरणा होने पर भी सम्यक्त्व से विचलित होकर दूसरों की सहायता की अपेक्षा न रखू / कहने का तात्पर्य यह है कि जिस तरह दूसरे श्रमणोपासक सम्यक्त्व में इतने दृढ़ रहते हैं कि उनको देव भी उससे चलायमान नहीं कर सकते इसी प्रकार मैं भी उसमें दृढ़ रहूं / जैसे वे निर्ग्रन्थ-प्रवचन में निःशङ्क, निराकाङ्क्ष और सब तरह से सन्देह रहित हैं, निर्ग्रन्थ-प्रवचन के तत्त्व को जानते हैं, उसके अर्थ से परिचित हैं, अर्थों को स्थविर और आचार्यों से पूछकर निश्चित करते हैं और अनुभव द्वारा अर्थों का निर्णय करते हैं, जैसे उनका आत्मा, शरीर, अस्थि, मज्जा और अङ्ग-२ धर्म के राग में कुसुम-पुष्प के समान रंगा होता है, और वे निर्ग्रन्थ प्रवचन को अपना ध्येय समझते हैं और सदैव इस बात का प्रचार करते हैं कि वह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ है और यही मोक्ष का कारण होने से परमार्थ है, इसके अतिरिक्त संसार में जितने भी धन, धान्य, परिवार आदि और अन्य कु-प्रवचन (शास्त्र) हैं वे सब अनर्थ हैं और अनर्थ-मूलक हैं, अपने हृदय को स्फटिक के समान निर्मल रखते हैं, भिक्षुओं को दान देने के लिए अपने द्वार हमेशा खुले रखते हैं,-जिस से उनका औदार्य और दानातिशय (बहुत दान देना) सिद्ध होता है-निर्भय हैं, विश्वस्त कुलों में निर्बाध प्रवेश करते हैं, अविश्वस्त कुलों की ओर पैर भी नहीं बढ़ाते हैं और चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या, पूर्णमासी आदि पर्व-दिनों में नियम से प्रतिपूर्ण पौषधोपवास करते हैं और श्रमण निर्ग्रन्थों को निर्जीव और निर्दोष अन्न, पानी, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, कम्बल, रजोहरण, औषध, प्रतिहारक, पीठ-फलक, शय्या, संस्तारक तथा मुनियों के ग्रहण करने योग्य अन्य पदार्थ दान देते हुए विचरण करते हैं और यथाशक्ति तपः-कर्म भी ग्रहण करते हैं उसी प्रकार मैं भी उपर्युक्त सब गुणों से युक्त श्रमणोपासक बनूं / अब सूत्रकार उक्त विषय से ही सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं :
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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